शिव कुमारी भाग १५
सन १९७३ में घर का दूसरी बार बँटवारा हुआ। पहली बार बड़े ताऊजी अलग हुए थे, जो मेरे जन्म से पहले की बात थी।
उसका भी एक मजेदार किस्सा था, बड़े ताऊजी के पुत्र राम भैया ने बेवजह ही मझले ताऊजी के चतुर्थ पुत्र को एक जोर का थप्पड़ लगा दिया था। राम भैया का डील डौल किसी पहलवान से कम न था। थप्पड़ का निशान चचेरे छोटे भाई के गाल पर साफ नजर आने लगा।
घर के और बड़ों ने तो कुछ नहीं कहा पर,
दादी अपने प्यारे छोटे से पोते को सुबकते देख कर एक दम से बिफर पड़ी और राम भैया को खरी खोटी सुना दी।
जवान पोते ने दादी से उलझने की जुर्रत क्या की, कि दादी ने फौरन ही उन्हें गुस्से में अपने पोते होने से ही बेदखल कर दिया। उनके सामने भला किसकी मजाल कि कोई बहस करे।
दादी ने बेअदब पोते को उसी क्षण से ठाकुरबाड़ी में अपने हिस्से वाले मकान में जाकर रहने को कह दिया।
पर ये दूसरा बँटवारा जरा शांतिपूर्ण रहा। दादी की इच्छा तो नहीं थी कि उनके जीते जी घर के और हिस्से हों पर वो बेमन से ही सही ,मान गयी।
कोठी बँट चुकी थी, दायाँ हिस्सा मझले ताऊजी को मिला और बायाँ हिस्सा पिताजी के हिस्से में आया।
दादी और दादाजी ने अपने छोटे बेटे के साथ रहने का फैसला किया क्योंकि पिताजी की उस वक़्त तक कोई निश्चित आमदनी नहीं थी। दादाजी की पंडिताई की आमदनी से पिताजी को सहायता होगी, यही सोच कर ये फैसला लिया गया।
उनका ये निर्णय स्वाभाविक भी था, माँ बाप का झुकाव थोड़ी कमजोर परिस्थिति में होने वाले पुत्र की तरफ होता ही है।
पर इससे घर के वातावरण में कोई कड़वाहट नहीं आयी, इसे बड़ी सहजता से लिया गया। बस चौके दो हो गए थे बाकी सब कुछ पूर्ववत ही रहा। ये एक अच्छी बात थी।
घर के आंगन, गलियारे, कुएँ और पेड़ पौधों का इस बँटवारे से कोई सरोकार नहीं था।
गद्दीघर में विराजमान दादी पहले की तरह ही बच्चों को डाँट – फटकार, प्यार और गालियाँ देने में फिर से व्यस्त हो गयीं।
दादी की मझली दीदी के साथ खटपट कभी कभार चलती ही रहती थी। एक बार इसी तरह गुस्से में दादी ने एलान कर दिया कि वो अब से मझले ताऊजी के यहाँ खाना खायेगी। उनकी जिद थी कि जब तक,
“या उशली(उषा दीदी का बिगड़ा हुआ उच्चरित नाम) जब तक इ घर म ह तब तक थार खाणो कोनी खाऊँ”
(जब तक मझली दीदी इस घर में है तब तक वो अब हमारे यहाँ से अन्न ग्रहण नहीं करेंगी)
कुछ दिन तक ये भी हुआ कि दादाजी को माँ खाना परोसती थीं और दादी को ताईजी।
ये अनुक्रम कुछ दिन चला, फिर किसी बात पर दादी ताईजी से गुस्सा होकर रूठ गयीं।
माँ ने इस अवसर का फायदा उठाया और दादी को मनाने में कामयाब हो गयी। बड़ों को थोड़ी मनुहार ही की तो चाहत होती है!!!
दादाजी इन सब बखेड़ों में तटस्थ रहे और न ही उन्होंने दादी को ही कुछ कहा।
उन दोनों के बीच के इस तालमेल की जड़ें बहुत पुरानी थीं और एक अनकहा सबक भी कि पति पत्नी के रिश्ते में एक दूसरे की भावनाओं और अहम को सम्मान देना कितना जरूरी है।
दादी का पक्ष कभी गलत होने पर भी सार्वजनिक तौर पर उन्होंने उनको कभी कुछ नहीं कहा, अकेले में कभी समझाया भी हो तो पता नहीं।
दादी इस बात पर मन ही मन गर्व भी जरूर करती थी कि भले ही दादाजी उनसे दो वर्ष उम्र में छोटे रहें हो पर समझदारी और व्यवहारिकता में उनका कोई जवाब नहीं था।
बचपन में टीबों में वक्त बिताते हुए सूरज को निहारते हुए शायद ऐसे ही वर की कामना की होगी उन्होंने।
त्यौहारों पर माँ और मझली ताईजी पकवान बनाते वक्त, या फिर पापड़ या अचार डालते वक़्त अब भी दादी की विशेषज्ञता पर ही निर्भर थीं।
दादी बारी बारी से दोनों चौकों का मुआयना करती और एक सधे हुए प्रशिक्षक की तरह अपनी राय देकर उनको अपने अनुभव का कायल कर देती।
दादी के सामने दोनों इतने सालों के अनुभव के बाद भी नौसिखिया ही लगती।
दादी धीरे धीरे जिंदगी की अंतिम ऊंची होती हुई पगडंडी की ओर बढ़ती हुई अपना सारा अर्जित अनुभव और ज्ञान बाँट देना चाहती थीं।
वो मुक्त होना चाहती थी पर अभी थोडा वक़्त था, अपने छोटे बेटे के ज्येष्ठ पुत्र जो अपने ननिहाल में स्नातक होने की पढ़ाई कर रहे थे , उसकी पढ़ाई पूरी होने और नौकरी लगने का उन्हें बेसब्री से इंतजार था ।
हाँ, एक प्रण और भी तो था जो अधूरा था, मझली दीदी की शादी कराके, उन्हें इस घर से निष्कासित करने का, इसके पहले उनको कहाँ चैन मिलने वाला था?
उनको मालूम था , माँ दीदी की शादी को लेकर चिंतित रहने लगीं थी और तब तक वो अपने प्रयाण को किसी भी कीमत पर स्थगित रखना चाहती थी।
उनकी सलाह की माँ को अभी बहुत जरूरत थी।
कभी कभी दादी ये सोच कर मन ही मन खुश भी होती होंगी कि उनकी ये पोती
“ह तो ठाढी, पूरी की पूरी मेर पर ही गयी ह बालनजोगी”
( है तो मजबूत इरादों वाली, कमबख्त पूरी मेरे ऊपर ही गयी है)