Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
23 Aug 2020 · 6 min read

शिव कुमारी भाग १०

अब तो वो पुश्तैनी घर वैसा नही रहा, पक्का मकान बन चुका है पर आँख बंद करते ही एक कच्चा मकान आज भी साफ साफ दिखाई देता है। घर की दहलीज पर घोड़े की नाल की आकर सा खुला द्वार, जिसके माथे पर “विश्वनाथ गौरीशंकर” लिखा हुआ था, उस द्वार को समद्विबाहु त्रिभुज की दो भुजाओं जैसी खपरैलों की छत ढके बैठी थी।

दहलीज़ फलांगते ही एक छोटा वर्गाकार सा अहाता जिसके दाएं बाएं दो कमरे, जिन्हें बाहर वाले कमरे कहा जाता था,

अहाते से अंदर की ओर जाते घर का मुख्य दरवाजा, जो बहुत मजबूत था, दरवाजे पर छोटी छोटी वृत्ताकार लकड़ी की उभरी हुई चकतियाँ थी, जिसमें मोटी मोटी कीलें घुसी हुई थी, जो उनको जताती रहती थीं, कि हमारे कारण ही तुम लोग दरवाजे का हिस्सा बनी बैठी हो।

जैसे कि कील कोई बाहर वाली हो और सामाजिक कार्यकर्ता की भांति धौंस दिखाते हुए अपने कार्य मे व्यस्त हो।

फिर समझ मे आया, दोनों की जातियां अलग अलग जो थी,

दरवाजे की सांकल थोड़ी उदार हो गयी थी, वो बज कर कभी कभी बोल उठती, तुम्हारी ये रोज रोज की बहस कब बंद होगी।

उसका रुतबा दरवाजे के बराबर का था, अक्सर सारे लोग जब घर के बाहर जाते, तो सबसे पहले उसे ही याद करते कि अरे साँकल लगाई थी कि नहीं?

अपने दायित्व और अहमियत के कारण वो दरवाज़े के साथ मिल चुकी थी, बस उसे ताले से थोड़ी चिढ़ थी, जो इन मौकों पर उसे छेड़ने आ जाता, किसी अलीगढ़ शहर का था, शहर के लोग तो होते ही छिछोरे है, अंकुड़े मे घुसकर उसे छूता रहता था!!

वो तो दादी की बात मानकर कुछ देर के लिए उसकी बदतमीजियां बर्दाश्त करने को मजबूर थी।

ताला लगते या रात मे मुख्य दरवाजा बंद होते ही बाहर वाले दो कमरे बेचारे पराया महसूस करने लगते ,
वैसे भी उनमें ज्यादातर मेहमान ही ठहरते थे या घर के लोग पढ़ाई करते थे। किताबे पढ़कर और बाहर के लोगों की बातें सुनकर , ये थोड़े समझदार भी हो गए थे और सलीके से रहते थे। इन दो कमरों की बाहर झांकती छोटी खिड़कियां , हमे आगाह करने और स्कूल से लौटते ही खेलने की हड़बड़ी मे देखकर, हमारी कॉपी किताब हमसे लेकर कमरे मे रख देती थीं।

मुख्य दरवाजे के खुलते ही ,अंदर एक गलियारा शुरू होता, उसके बायीं तरफ खुला गद्दीघर और दायीं तरफ एक सोने का कमरा ।

गद्दीघर, जो किसी जमाने मे ,जब लाह की कोठी(कारखाना) चलती थी , तो व्ययसाय का मुख्य स्थान हुआ करता था।

इसी कारण हमें आज तक, परिवार मे कोठी वाला ही कहा जाता है !!
वो कच्चा मकान किसी कोठी से कम भी नही था, बल्कि उससे कही ज्यादा था हमारे लिये,

शांति, स्नेह और बेफिक्री एक साथ कहाँ मिल पाती है?

दादी की गालियां हम शांति की श्रेणी मे रखकर, ही सुनते थे और वो उन्हें उतनी शांति से देती भी थी, वर्षो के अनुभव के कारण ज्यादा उत्तेजित नही होती थी!!

कालांतर मे, यही गद्दीघर दादाजी और दादी के बैठने और सोने की जगह बन चुका था और अपना प्रभुत्व कायम रखे हुए था।

गलियारा फिर एक और दरवाजे से गुजरकर तीन सीढ़िया उतरता, फिर सामने एक दरवाजे से गुजर कर घर के कच्चे आंगन मे खुलता,

सीढ़ियों से उतरते ववत गलियारा बायीं और दायीं तरफ भी मुड़ता था और खुद भी कई सूती पट्टे की खाटें बिछाए रखता था। घर की सारी पंचायत, हंसी ठहाके और बहस का साक्षी रहा।

बायीं तरफ एक और दरवाज़े से गुज़र कर दादी के खजाने वाली कोठरी थी , जी हां , वहाँ उनका प्यारा लकड़ी का गल्ला एक लोहे के बक्से पर शान से बैठा रहता था, जिसकी चाबियां दादी के पल्लू मे बंधी रहती थी। इसी कोने वाली कोठरी (कमरे) मे दादी के सारे पोते पोती भी जन्म लिया करते थे।

खैर , उस गल्ले की ओर हसरत भरी नजरे लेकर जैसे ही कोई खड़ा होता,वो थोड़ा गुस्से मे देखता हुआ, अपने बायीं ओर एक दरवाजे की तरफ इशारा कर देता जो भंडार घर से होता हुआ
घर के चौके मे जा मिलता और चौके को पार करते ही दायीं ओर मुड़ते ही , घर के आंगन के उत्तरी भाग की ओर पहुंच जाते।

सीढ़ियों से उतर कर दायीं ओर जाता गलियारा ठीक वैसे ही भंडार गृह से होता हुआ फिर एक और चौके मे आ पहुंचता जो बाहर की ओर आंगन के दक्षिण भाग मे आकर खुले आसमान की ओर तकता रहता था।

घर के बाहर लगा नीम का पेड़, खपरैलों की छत से भी ऊंचा खड़ा होकर आंगन मे अपनी भीनी भीनी खुशबू, कभी तिनके मे लिपटी पत्तियां, तो कभी गुस्से मे कच्ची निम्बोलियाँ डाल देता था।

मुख्य दरवाजे से आंगन मे घुसते ही सामने कुँए के पास अमरूद , जामुन, पपीते और आम के पेड़ थे । नीम के पेड़ से उनका ज्यादा मेलजोल नही रहा। दूर का रिश्तेदार था और कड़वी जुबान भी बोलता रहता था। इसिलए ये आपस मे ही बात करते रहते थे।

उन्हें सिर्फ इस बात से चिढ़ थी कि दादी उसकी दातुन इन पेड़ों के पास फेंक दिया करती थी, नीम की ये बेटियां अपने पास पड़ी हुई इनको भाती तो नही थी, पर दादी से सवाल कौन कर पाता।

ये घर की कामवाली बाई का इंतजार करते रहते जो झाड़ू देकर अन्य पत्तों और कूड़े कर्कट के साथ इन्हें भी घर के पीछे की खुली जगह मे छोड़ आती।

कुँए के पास पहुंचने के ठीक पहले, अमरूद और आम के पेड़ बायीं व दायीं ओर दो दरबान की तरह खड़े दिखते , साथ ही गायों और उनके चारे वाली कोठरी की भी पहरेदारी करते नज़र आते थे।

उस दिन दादी गद्दीघर मे बैठी, वहाँ लगी हुई हाथ की चक्की से बाजरा पिसता हुए देख रही थी। सुबह को ही, गोबर के घोल से घर के सारे कमरों के कच्चे फर्श को लीपा गया था।एक हल्की सी गंध और कुछ जगहों पर थोड़ी नमी बरकरार थी।

नज़र ऊपर उठते ही , पूर्वी और पश्चिमी दीवारों के बीच पुल की तरह लगी एक बहुत मोटी बल्ली नज़र आई, जिसके बीचो बीच एक लोहे का कड़ा झूलता दिखा, बहुत पहले उस पर एक बड़ा सा तराजू लटकता रहता था,

लाह की कोठी तो कब की बंद हो चुकी थी।

सुबह सुबह वो कुएं के पीछे बने सीमेंट से बने गोल हौद और बड़ी सी कढ़ाई मे हमको बैठा हुआ देख आयी थी। इस हिस्से मे कभी साबुन बनाने की फैक्ट्री हुआ करती थी।

हमको वहां बैठा देख, कुछ कहा नहीं, बस थोड़ी उदास दिखी।

एक ठंडी आह भरकर सोच रही होगी कि धीरे धीरे सारे व्ययसाय तो बंद हो गये।

ख्यालों को झटक कर अपनी विश्वासपात्र पोती को आवाज़ लगाकर गल्ले को लाने को कहा।
उसे इन दिनों ज्यादा नही खोलती थी। गल्ले का ताला खोल कर उसमें बने छोटे छोटे खानों को देखती रही, इन खानों के नीचे एक तहखाना भी था , गल्ले मे, कुछ रुपये, सिक्के, जमीन के कर की रसीद, सोने चांदी तोलने का एक तराजू, कांटा चुभ जाने पर निकालने की चिमटी, कान साफ करने की बिल्कुल ही छोटे आकार की गोल सी चम्मच , सुरमा और न जाने क्या क्या रखा पड़ा था। एक छोटे से बंडल मे रेल की पुरानी कुछ टिकटें थी जो न जाने कितनी बार उनको अपने राजगढ़ और रिणी पहुंचा कर , फिर ले आयी थी।

उन्हें उलट पलट कर देखती रही , फिर सहेज कर दोबारा रख कर गल्ले को बंद करके कुछ सोचने लगी।

पोती आलाकमान के आदेश के इंतजार मे थी कि गल्ले को उसके सिंघासन रूपी बक्से पर दोबारा रख आएं। वो बक्सा भी अब तक अपनी पीठ सीधी कर चुका था और गल्ले का बोझ फिर पीठ पर लादने को तैयार था।

गल्ला भी दादी की तरह उम्रदराज हो चला था अब उसमे भी इतना वजन कहाँ बाकी बचा था?

दादी घर की छत को निहारती सोच रही थी कि बारिश शुरू होने से पहले एक बार घर के छप्पर की खपरैलों के रखरखाव और मरम्मत करने वाले को बुलाना पड़ेगा!!!

पास के देहात के हरि और मुरली को गालियां देने का वक़्त आ चुका था, अभी पिछले साल ही तो सारे घर की टूटी खपरैलों की छवाई की थी उन्होंने। कुछ दिन पहले की बेमौसम बारिश ने दादी को उनकी शिकायत कर दी थी।

दादी बुदबुदा कर बोल उठी

“रामर्या क्याहीं जोगा कोनी, रांद काटग्या खाली”
(कमबख्त किसी काम के नही है, पिछली बार बेकार काम किया था)

Language: Hindi
3 Likes · 4 Comments · 429 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Umesh Kumar Sharma
View all
You may also like:
आप अभी बाहर जी रहे हैं, असली हीरा अंदर है ना की बाहर, बाहर त
आप अभी बाहर जी रहे हैं, असली हीरा अंदर है ना की बाहर, बाहर त
Ravikesh Jha
नया दिन
नया दिन
Vandna Thakur
मन मेरा दर्पण
मन मेरा दर्पण
शालिनी राय 'डिम्पल'✍️
उम्मीद का दामन।
उम्मीद का दामन।
Taj Mohammad
नाबालिक बच्चा पेट के लिए काम करे
नाबालिक बच्चा पेट के लिए काम करे
शेखर सिंह
इक बार वही फिर बारिश हो
इक बार वही फिर बारिश हो
Mrs PUSHPA SHARMA {पुष्पा शर्मा अपराजिता}
हम यथार्थ सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं
हम यथार्थ सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं
Sonam Puneet Dubey
हर रात उजालों को ये फ़िक्र रहती है,
हर रात उजालों को ये फ़िक्र रहती है,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
**कुछ तो कहो**
**कुछ तो कहो**
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
रमेशराज की कविता विषयक मुक्तछंद कविताएँ
रमेशराज की कविता विषयक मुक्तछंद कविताएँ
कवि रमेशराज
कल आंखों मे आशाओं का पानी लेकर सभी घर को लौटे है,
कल आंखों मे आशाओं का पानी लेकर सभी घर को लौटे है,
manjula chauhan
मुफलिसो और बेकशों की शान में मेरा ईमान बोलेगा।
मुफलिसो और बेकशों की शान में मेरा ईमान बोलेगा।
Phool gufran
राष्ट्र धर्म
राष्ट्र धर्म
Dr.Pratibha Prakash
4471.*पूर्णिका*
4471.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
🙅पता चला है🙅
🙅पता चला है🙅
*प्रणय*
यह कैसा है धर्म युद्ध है केशव
यह कैसा है धर्म युद्ध है केशव
VINOD CHAUHAN
Dr Arun Kumar shastri
Dr Arun Kumar shastri
DR ARUN KUMAR SHASTRI
🙏 *गुरु चरणों की धूल*🙏
🙏 *गुरु चरणों की धूल*🙏
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
आजकल लोग बहुत निष्ठुर हो गए हैं,
आजकल लोग बहुत निष्ठुर हो गए हैं,
ओनिका सेतिया 'अनु '
जो चीजे शांत होती हैं
जो चीजे शांत होती हैं
ruby kumari
ग़ज़ल सगीर
ग़ज़ल सगीर
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
भाग्य प्रबल हो जायेगा
भाग्य प्रबल हो जायेगा
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
यकीन का
यकीन का
Dr fauzia Naseem shad
ବିଭାଗ[ସମ୍ପାଦନା]
ବିଭାଗ[ସମ୍ପାଦନା]
Otteri Selvakumar
कागज़ ए जिंदगी
कागज़ ए जिंदगी
Neeraj Agarwal
क्यों नहीं आ रहे हो
क्यों नहीं आ रहे हो
surenderpal vaidya
*चुनावी कुंडलिया*
*चुनावी कुंडलिया*
Ravi Prakash
శ్రీ గాయత్రి నమోస్తుతే..
శ్రీ గాయత్రి నమోస్తుతే..
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
झूल गयी मोहब्बत मेरी,ख्वाइश और जेब की लड़ाई में,
झूल गयी मोहब्बत मेरी,ख्वाइश और जेब की लड़ाई में,
पूर्वार्थ
"आसां सा लगता"
Dr. Kishan tandon kranti
Loading...