“शिवाजी महाराज के अंग्रेजो के प्रति विचार”
व्यापार करने के उद्देश्य से भारत आने वाले अंग्रेजों के प्रति शिवाजी के मन में संदेह उत्पन्न हो रहा था। अंग्रेजों के स्वभाव का सूक्ष्म निरीक्षण करके शिवाजी ने भविष्यवाणी कर दी थी कि एक दिन यह कौम भारत भूमि पर कब्जा करने का प्रयास करेगी अंग्रेजों एवं अन्य विदेशियों के साथ भारतीय शासकों को कैसा बर्ताव करना चाहिए इस बाबत शिवाजी ने अपने आज्ञा पत्र में इस प्रकार मार्गदर्शन किया है–
साहूकार तो हर राज्य की शोभा होते हैं साहूकार के योगदान से ही राज्य में रौनक आती है जो चीजें उपलब्ध नहीं होती वह साहूकारों की गतिविधियों से राज्य में आती है इससे व्यापार बढ़ता है और राज्य धनी होता जाता है। संकट के समय कर्ज इन्ही साहूकारों से मिलता है, जिससे संकट का निवारण हो जाता है साहूकार की रक्षा करना स्वयं राज्य की रक्षा करना है। साहूकार के संरक्षण से बहुत लाभ होता है इस कारण साहूकार का भरपूर सम्मान करना चाहिए और उसका कहीं अपमान न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए।
बाजारों में विभिन्न दुकानों में बखारी (अन्नगार), हाथी-घोड़े, जरमिना, जरबाब, आदि का व्यापार किया जाए, साथ ही श्रेष्ठ वस्त्र, रत्न, शस्त्र आदि का व्यापार किया जाए। हुजूर बाजार में बड़े साहूकारों को रखा जाए। शादी विवाह के समय उन्हें आदर के साथ बुलाकर वस्त्र आदि देकर संतुष्ट किया जाए। हमारे जो साहूकार दूसरे प्रांत में हो उन्हें भी संतुष्ट किया जाए। यदि वे संतुष्ट ना हो तो जहां वे है, उन्हें वही अनुकूल स्थान में दुकानें देकर संतुष्ट किया जाए। इसी तरह समुद्री व्यापार से संबंध रखने वाले साहूकारों का स्वागत करने के लिए बंदरगाहों पर संदेश भेजें जाए।
साहूकारों के साथ अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी इत्यादि लोग भी सहयोग करते हैं। हमारे साहूकार इन विदेशियों के प्रभाव में ज्यादा न आ जाए, यह देखना जरूरी है। इन विदेशियों के आका दूर कहीं, सात समंदर पार बैठे हैं। इन आकाओं के ही आदेश पर ये यहां आकर साहूकारी कर रहे हैं। इन्हें भारत भूमि से प्यार नहीं है। ये इस पवित्र धरती का शोषण ही करेंगे। ये गोरे जहां-जहां जाएंगे, वहां-वहां राज्य करने की कोशिश करेंगे। ये केवल साहूकारी नहीं करेंगे, केवल व्यापार नहीं करेंगे, साथ में राज्य करने का भी लोभ इन्हें होगा। इन्होंने इस देश में प्रवेश करके अपना क्षेत्र बड़ाया है, स्वयं की प्रतिष्ठा बढ़ाई है, जगह-जगह तरह-तरह के कार्य किए है। यह बहुत हठी कौम है। हाथ में आया हुआ स्थान ये मरने पर भी नहीं छोड़ेंगे।
इन्हें मेहमानों की तरह ही जरा फासले पर ही रखा जाए। इनसे आत्मीय न हुआ जाए। इन्हें लंबे समय के लिए या हमेशा के लिए, कभी कोई स्थान न दिया जाए। जंजीरा किले के पास इनका आवागमन रोका जाए। अगर कोठार बनाने के लिए जगह मांगे, तो इन्हें समुद्र के पास अथवा समुद्री किनारे पर या खाड़ी पर जगह न दी जाए, अगर किसी तरह ये ऐसी जगहों पर पहुंच जाए, तो लगातार नजर रखी जाए कि ये मर्यादा में रह रहे हैं या नहीं। ये वे लोग हैं जो अपनी समुद्री सेना खड़ी कर लेते हैं, तोप-बारूद ले आते हैं, इन चीजों के जोर पर ये अपने खुद के किले बना लेते हैं। जहाँ इनका किला बन गया, वह जगह गई ही समझो। यदि जगह देनी है तो उस तरह दो, जैसे फ्रांसीसियों को दी गई है थी। इन अंग्रेजों को सिर्फ चुनिंदा शहरों में जगह दी जाए। भंडार बनाना चाहे, तो बनाएं लेकिन इन्हें रिहायशी इमारतें बनाने की मनाही होनी चाहिए। इस तरीके से यदि यह रहते हैं तो ठीक है, नहीं तो इनसे दूर का ही नमस्कार रखें। हम उनकी राह में रोड़ा न अटकाएँ और वे भी हमारी राह में रोड़ा न अटकाएँ। गनीम का उसूल था कि शत्रु राज्य का कोई साहूकार अपने कब्जे में आए तो उससे फिरौती लेने के बाद ही छोड़ना। फिरौती लेने के बाद उसका मान सम्मान करने के बाद उसे अपने देश भेज देना। अतः उचित भूखंड मिलने पर हम इन गोरों पर मेहरबानी कर सकते हैं इन्हें इनके भूखंड की ओर रवाना करके। गनीम की तरफ से नौकर-चाकर को जो दंड दिया जाता है, वह साहूकार के लिए उचित नहीं है।
शिवाजी की भविष्यवाणी आखिर सच निकली। व्यापार के लिए भारत आए हुए अंग्रेजों ने संपूर्ण भारत भूमि को ही अपने कब्जे में ले लिया। फिर इन्हें यहां के राज्यकर्ता बनने से कौन रोक सकता था!
कोरेगांव की लड़ाई में हारने के बाद सन् 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों की शरणागति स्वीकार कर ली। इस प्रकार सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया पूरी हुई। सन् 1818 में रायगढ़ तालुका अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। उस समय मोरोपंत वहाँ के सूबेदार थे। अंग्रेजों ने उन्हीं को अपना अधिकारी नियुक्त कर दिया। सन् 1866 में रायगढ़ तालुका का नाम बदलकर महाड तालुका कर दिया गया। जब तक नाम रायगढ़ तालुका चल रहा था, तब तक लोगो को राजगढ़ की याद आती रही। महाड तालुका किए जाने पर सब उजड़ना शुरू हो गया। दो-चार धनवानो के निवास-स्थानों के अलावा गिनाने लायक कुछ भी शेष न रहा।
सन् 1896 में पहली बार शिवाजी उत्सव संपन्न हुआ। कोलाबा जिले के उस समय के कलेक्टर ने उत्सव मनाने पर आपत्ति की एवं शासन को लिखा–
“स्वराज्य के प्रति लोगों के मन में अपनत्व की भावना यदि है तो उसे बढ़ावा दिया जाए और यदि नहीं है तो उसे उत्पन्न किया जाए; यही है इस उत्सव का उद्देश्य।” किंतु लोकमान्य तिलक उत्सव के पक्ष में थे। तिलक बीच में पड़े, तब उत्सव संभव हुआ। सन् 1897 में द्वितीय शिवाजी उत्सव पूना में संपन्न हुआ। इस अवसर पर लोकमान्य तिलक ने शिवाजी के हाथों अफजल खान वध के समर्थन में भाषण दिया। दस दिनों बाद आयरस्ट एवं रैंड नामक दो अंग्रेज अधिकारियों ने चाफेकर बंधुओं की गोली मारकर हत्या की। लोकमान्य तिलक को राजद्रोह की सजा दी गई।
लोकमान्य तिलक की तरह इंग्लैंड में वीर सावरकर एवं पंजाब में सरदार स्वर्ण सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने शिवाजी महाराज की प्रतिमा के सामने शीश झुकाकर गोपनीयता की कसम खाई।
शिवाजी उत्सव की हवा देश भर में फैल गई। देश के 128 समाचार-पत्रों ने इसका विवरण प्रकाशित किया। उदाहरण के तौर पर:
‘अहमदाबाद टाइम्स’ अहमदाबाद।
‘देशतील’ सूरत।
‘देशभक्त’ बड़ौदा।
‘गुलबर्गा समाचार’ हैदराबाद।
‘कालिदास’ धारवाड़।
‘कर्नाटक वैभव’ बीजापुर।
‘काठियावाड़ टाइम्स’ राजकोट।
‘नवसारी प्रकाश’ नवसारी।
‘फिनिक्स’ कराची।
‘प्रभात’ सिंध।
तथा महाराष्ट्र के तालुका एवं जिला स्तर के सभी समाचार-पत्र।
प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध के समय स्वयं अंग्रेजों ने शिवाजी महाराज की वीरता का गुणगान करते हुए शिवाजी के मावलों को सेना में भर्ती होने का आह्वान किया था। मामलों ने भी इस आह्वान को अच्छा प्रतिसाद दिया। इस प्रकार शिवाजी के वीर मावलों ने सात समंदर पार, सीधा यूरोप की रणभूमि पर ‘हर-हर महादेव!’ की रण-गर्जना की। आज भी भारतीय सेना की कई रेजीमेंट्स का युद्धघोष ‘हर-हर महादेव!’ ही है नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था–
“भारत के इतिहास में केवल शिवाजी महाराज का तेजस्वी चरित्र मेरे अंतःकरण में मध्याह्न के सूर्य की तरह प्रकाशमान हुआ है। शिवाजी महाराज के जैसा उज्ज्वल चरित्र मैंने किसी और राजनेता का नहीं देखा। आज की परिस्थिति में इसी महापुरुष की वीर-गाथा का आदर्श हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। शिवाजी महाराज के आदर्शों को संपूर्ण भारतवर्ष के सामने रखा जाना चाहिए।”
नेता जी का यह कथन खोलते पानी पर उठते बुलबुलों के समान नहीं है। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने पर नेता जी ने जन आंदोलन का प्रारंभ किया। फलस्वरूप अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया, किंतु नेता जी ने जब आमरण उपवास शुरू किया तब उन्हें सातवें दिन छोड़ दिया गया लेकिन अंग्रेजों ने तत्काल कलकत्ता के उनके घर पर पुलिस का खुफिया पहरा बिठा दिया उन्हें दो मुकदमों में फंसा कर रखा गया। मुकदमों के फैसले न होने तक वे देश छोड़कर नहीं जा सकते थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम को भी वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं ले जा सकते थे। इस मोर्चे को नेताजी अच्छी तरह समझ चुके थे। द्वितीय विश्वयुद्ध अभी चल ही रहा था कि नेताजी बड़े नाटकीय तरीके से अचानक पलायन कर गए, उन्होंने अफगानिस्तान और सोवियत रूस के मार्ग से जर्मनी में प्रवेश किया। समझने की बात है कि इस पलायन के प्रेरणा-स्रोत कौन थे? निसंदेह शिवाजी महाराज ही उनके प्रेरणास्रोत थें।
पलायन करने से पहले नेता जी ने मौन धारण कर लिया था वे नितांत एकांत में रहने लगे थे। अंग्रेज अधिकारियों एवं पहरेदारों से मिलना भी बंद कर दिया था। किसी को सपने में भी ख्याल नहीं था कि नेताजी चुपके-चुपके दाढ़ी बड़ा रहे थे। पलायन के रात्रि में उन्होंने पठान का वेश धारण किया और अपने भाई के पुत्र शिशिर कुमार बोस के साथ कार में बैठकर निकल गए। इस प्रकार वे अंग्रेजों को चकमा देने में सफल हो गए। उनके पलायन की तारीख थी 19 जनवरी 1941.
जिस कार का उपयोग उन्होंने पलायन करने के लिए किया वह उनके कोलकाता के निवास स्थान पर, इस घटना की स्मृति में आज भी सुरक्षित रखी हुई है।
महामानव शिवाजी महाराज एवं उनकी बुद्धिमत्ता के संदर्भ में कोर्स नामक विद्वान ने जो निरीक्षण किया था वह इस प्रकार है– “जिन व्यक्तियों को उच्च बुद्धि मिली होती है उनका प्रभाव किसी विशेष क्षेत्र में अथवा एक साथ अन्य क्षेत्रों में होता है। वो सद्बुद्धि के व्यापारियों की बनिस्बत उच्च बुद्धि के महानुभाव अधिक प्रभावशाली होते हैं।”
उच्च बुद्धि के व्यक्ति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विशेष कार्य कर दिखाते हैं। अन्य क्षेत्रों में भी उनकी क्षमता बहुत ऊंची होती है जैसे—लियोनार्डो द विंची, मायफेलेंजेलो, डेकार्ट, बेंजामिन फ्रैंकलिन, गेटे इत्यादि। शिवाजी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनकी क्षमता एक साथ कितने क्षेत्रों में कार्य करती थी! शिवाजी स्वयं शूरवीर योद्धा थे उत्कृष्ट सेनापति और सक्षम प्रशासक थे। छापामार युद्ध के तो महारथी थे। आज की आधुनिक दुनिया भी उन्हें छापामार युद्ध के महान विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार करती है। अभेद्य किलो का निर्माण करने में उनका कोई सानी नहीं था। समुद्र का लेश-मात्र भी ज्ञान न होने के बावजूद उन्होंने अपनी सशक्त नौसेना स्थापित की। उन्हें भूगर्भ का भी गहन ज्ञान था। पर्यावरण का महत्व वे खूब समझते थे। सही और गलत का उनका व्यावहारिक ज्ञान आज भी सबको प्रेरणास्पद लगता है। अधर्म और अंधविश्वास के नाश के लिए उन्होंने बहुत काम किया। समाज-सुधारक के रूप में भी कोई उनकी बराबरी तक नहीं पहुंच सकता।
अनेक शताब्दियों से भारतीय समाज कछुए की तरह अपने हाथ-पैर एवं सिर, कवच के नीचे छिपा कर जी रहा था। शिवाजी ने उसे सिर ऊंचा करके जीना सिखाया और हाथ-पैरों को स्वतंत्र गति दी ताकि बदली हुई परिस्थितियों में सब निर्भरता से जीना सीख सकें।