शिवाजी गुरु स्वामी समर्थ रामदास – भाग-01
युगों-युगों से पृथ्वी पर महापुरुषों का आगमन होता आया है। उनके द्वारा ज्ञान, ध्यान, निःस्वार्थ प्रेम और भक्ति से वर्तमान समाज की पात्रता बढ़ाने का कार्य निरंतरता से चलते आया है। समाज के उद्धार के लिए उन्होंने अनासक्ति और अव्यक्तिगत जीवन की कई मिसालें कायम की हैं.
इसके लिए कई महात्माओं ने समाज के रोष और कड़े विरोध का सामना किया मगर अपने लक्ष्य से नहीं हटे। आज हम ऐसे ही महापुरुष के बारे में जानेंगे, जिन्होंने भक्ति द्वारा लोगों में शक्ति जगाने का कार्य किया, जिनके नाम में ही उनका सामर्थ्य छिपा हुआ है, वे महात्मा हैं– स्वामी समर्थ रामदास!
वर्तमान में परिस्थितिजन्य कोलाहल के बीच सुख, समाधान, शांति पाने हेतु महान संतों की जीवनी तथा उनके कार्यों का अध्ययन निश्चित रूप से हमें प्रेरणा देता है।
समर्थ रामदास को केवल संत कहना उचित नहीं होगा क्योंकि वे तपस्वी के साथ ही प्रतिभावान कवि और दिग्गज विद्वान भी थे, हैं और रहेंगे। महान समयदर्शी व राजनीतिज्ञ समर्थ रामदास अपने प्रांत में देवतुल्य तथा हनुमानजी का अवतार माने जाते हैं।
हालाँकि उनका कार्यक्षेत्र मूलत: महाराष्ट्र रहा किंतु उन्होंने देशाटन द्वारा पूरे राष्ट्र में जागृति की प्रेरणा देते हुए, लोगों में स्वराज्य की भावना को प्रोत्साहित किया। उनके महान कार्यों से हमें इतने समय बाद भी वही प्रेरणा और उत्साह प्राप्त होता है, जो उस वक्त के समाज को प्राप्त हुआ था।
इतिहास में बहुत ही कम ऐसे आध्यात्मिक गुरु हुए हैं, जिन्होंने समाज को न सिर्फ शारीरिक शक्ति अर्जित करने बल्कि शस्त्र उठाने के लिए भी प्रेरित किया। सामाजिक स्थिति और समय की ज़रूरत अनुसार समर्थ रामदास ने लोगों को देश की सुरक्षा हेतु प्रेरित किया।
जन्म और बाल्यकाल:
महाराष्ट्र के जालना ज़िले के जामगाँव में दो संसारी रहते थे- सूर्याजीपंत ठोसर और उनकी पत्नी राणुबाई। दो लोग मिलकर जब संसार की शुरुआत करते हैं तो उसका मूल उद्देश्य होता है, सांसारिक जीवन जीते हुए, सांसारिक ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए आध्यात्मिक विकास करना। सूर्याजीपंत और राणुबाई ऐसे ही दंपति थे। ईश्वर के प्रति उनके मन में असीम श्रद्धा थी। सूर्याजीपंत बचपन से ही सूर्य उपासक थे। छत्तीस वर्षों तक उन्होंने सूर्य की कठिन उपासना और अनुष्ठान किया था। दोनों पति-पत्नी सूर्य के साथ-साथ प्रभु श्रीराम के भी उपासक थे।
विवाह के बारह साल पश्चात भी उनके घर संतान का जन्म नहीं हुआ था। लेकिन वे निराश नहीं हुए, ना ही उपासना के मार्ग से हटे। लोग मन मुताबिक फल न मिलने पर ईश्वर को भी कोसने लगते हैं। मगर दोनों पति-पत्नी का आपस में सामंजस्य था। उन्होंने अपनी श्रद्धा ढलने नहीं दी। बिना अटके, बिना भटके, उन्होंने अपनी उपासना जारी रखी।
भगवान सूर्य के आशीर्वाद से एक दिन उनकी उपासना फल लाई। सन 1605 (संवत 1662) में उनके घर पहले पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम उन्होंने भगवान शिव के नाम से ‘गंगाधर’ रखा।
पति-पत्नी का मानना था कि स्वयं भगवान शिव ने उनके घर में पुत्र बनकर जन्म लिया है। गंगाधर के बड़े होते-होते, अप्रैल सन 1608 (संवत 1665) में, रामनवमी के दिन दोपहर में यानी प्रभु श्रीराम के जन्म के समय ही उनके दूसरे पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया ‘नारायण’।
इस तरह एक पुत्र को भगवान शिव का तो दूसरे को विष्णु का अवतार मानते हुए सूर्याजीपंत-राणोबाई का संसार परिपूर्ण हुआ।
जब भी महापुरुषों के जन्म की बात होती है तो वहां असल में उनके शरीर के बारे में बताया जाता है। कोई भी जन्म से महापुरुष नहीं होता लेकिन महापुरुष बनने के बीज उसके अंदर जन्म से ही होते हैं, जो अपने समय पर फलित होते हैं।
नारायण को भगवान हनुमान और प्रभु श्रीराम के प्रति बचपन से ही बड़ा आकर्षण था। बड़े भाई गंगाधर का भी उन पर बहुत प्रभाव था। दोनों भाई अपने माता-पिता का स्नेह-संस्कार पाते हुए बड़े हो रहे थे। दोनों का बचपन बहुत सरल था। गंगाधर अपने पिताजी से मंत्र दीक्षा पाकर उपासना में लग गए और नारायण अभी अपनी बाल लीलाओं में ही मज़े से जी रहे थे।
बचपन से ही नारायण में रजोगुण का प्रभाव था। बड़े भाई गंगाधर के बिलकुल विपरीत वे एक शरारती बच्चे थे। चंचल वृत्ति और तीव्र बुद्धि के रहते वे बड़े करामाती भी थे। पेड़ों पर चढ़ना, दीवार से कूदना, छत पर चढ़ना आदि वे सहजता से करते थे। कुएँ में छलाँग लगाना, नदी में तैरना उन्हें बहुत पसंद था। अपने मित्रों को साथ लेकर वे अकसर कुछ न कुछ करामातें करते रहते। उनका अधिकतर समय चारों ओर उपद्रव मचाने में ही बीत जाता था।
माँ उन्हें अपने साथ हनुमान मंदिर ले जातीं तो वहाँ भी वे पेड़ पर चढ़कर फल-फूल तोड़ते और मंदिर में यहाँ-वहाँ बिखेर देते। उनकी बाल लीलाएँ लोगों को बाल हनुमान की आनंददायी लीलाएँ याद दिलातीं। इसलिए लोग उन्हें बाल हनुमान ही कहते थे। कहा जाता है कि एक बार उनके माता-पिता उन्हें उस समय के प्रसिद्ध महापुरुष ‘संत एकनाथ’ से मिलवाने ले गए। (संत एकनाथ की पत्नी और नारायण की माँ राणुबाई, दोनों बहनें थीं) बालक नारायण को देखते ही एकनाथ महाराज ने कहा, ‘इस बालक में हनुमान का अंश है। आगे चलकर यह एक ऐसा महापुरुष बनेगा, जो अपने देश के संकटों को दूर कर, देश और धर्म का उद्धार करेगा।’
पाँच वर्ष की आयु में नारायण का उपनयन (जनेऊ) संस्कार किया गया। इसमें पुत्र अपने पिता से गायत्री मंत्र की दिक्षा लेता है और उसका अनुष्ठान करते हुए आगे वह मंत्र सिद्ध करता है। इस संस्कार के बाद संध्यादि कर्म (पूजा-पाठ, नाम सिमरन, प्रार्थना) रोज़ाना करना बच्चे के लिए अनिवार्य हो जाता है। इसी के साथ बच्चे का ब्रम्हचर्य आश्रम में प्रवेश होता है।
बड़े भाई गंगाधर को शिक्षित करने के लिए एक वैदिक ब्राह्मण की नियुक्ति हुई थी। नारायण भी अपनी कुशाग्र बुद्धि से वह पाठ पढ़ने लगे। किसी दिन नारायण को पता चला कि संत ज्ञानेश्वर को उनके बड़े भाई, संत निवृत्तिनाथ से नाममंत्र की दिक्षा मिली थी। यह सुनकर वे भी गंगाधर के पास जाकर नाममंत्र की दिक्षा माँगने लगे। लेकिन “नारायण अभी तुम्हारी उतनी तैयारी नहीं है”, यह कहकर गंगाधर ने उन्हें नाममंत्र देने से मना कर दिया।
इस तरह दोनों बच्चों का बचपन सरलता से बीत रहा था। लेकिन समय को कुछ और ही मंज़ूर था। जब नारायण की आयु आठ वर्ष की थी, उनके पिताजी का देहांत हो गया। अब दोनों पुत्रों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी माँ राणुबाई पर आ गई।
कई बार जीवन जो पाठ सिखा नहीं पाता, किसी की मृत्यु सिखा देती है। पिता की मृत्यु के बाद नारायण में एक बड़ा बदलाव आया। उनका रजोगुण कहीं सुप्त अवस्था में चला गया। उछलकूद करना, उत्पात मचाना बंद हो गया और वे गंभीर रहने लगे। रजोगुण की जगह सत्वगुण ने ले ली और उनके बरताव में विवेकशीलता, मननशीलता दिखने लगी।
बेटे के अंदर आया यह बदलाव देखकर माँ को भी आश्चर्य होने लगा। एक दिन उन्होंने नारायण को अंधेरे कमरे में अकेले ही ध्यान में बैठा पाया। जब माँ ने उनसे पूछा कि वे यह क्या कर रहे हैं तब उनसे जवाब आया, “विश्व कल्याण की चिंता कर रहा हूँ!” उस वक्त माँ समझ नहीं पाई कि उनके पुत्र ने किस समझ से यह जवाब दिया है।
पिता की मृत्यु देखने के बाद नारायण के अंदर गहरा मनन शुरू हुआ था। आस-पास के वृद्ध, पीड़ित और कमजोर लोगों को देखकर नारायण व्यथित हो जाते। उनके मन में विचार आते कि “क्या मुझे भी इस प्रकार की तकलीफों का सामना करना पड़ेगा? औरों की व्यथाएँ दूर करने के लिए क्या किया जा सकता है?” इस तरह जनकल्याण, विश्वकल्याण के विचार बचपन से ही उनके अंदर उमड़ते थे।
इसी के साथ उनकी एक और जिज्ञासा थी। यह जिज्ञासा मानो उनके लिए सर्वोपरि थी और वह थी, “मुझे देवदर्शन कब होगा! होगा या नहीं होगा?” यह प्रश्न नारायण का समर्थ रामदास बनने की यात्रा का शुरुआती कदम था।
जिन्हें घटनाएँ दुःखी करती हैं, वे एक सामान्य जीवन जीकर पृथ्वी से चले जाते हैं। घटनाएँ जिन्हें जगाती हैं, वे महापुरुष बनकर सदा लोगों के दिलों में जीवित रहते हैं।
मना पापसंकल्प सोडोनि द्यावा। मना सत्यसंकल्प जीवीं धरावा॥ मना कल्पना ते नको वीषयांची। विकारें घडे हो जनीं सर्व ची ची॥5॥
अर्थ – हे मन, तुम पाप कर्म करने की कामना छोड़ दो और सत्य पाने का संकल्प धरो। हे मन, तुम विषयों की (इंद्रिय सुखों की) कल्पना में डूबे मत रहना। इन विकारों की वजह से दुनिया में निंदा ही मिलती है।
अर्क – चंचल मन की इच्छाएँ, मन के विकार सत्य पाने में बाधा हैं। मन, इंद्रिय लालसाओं में फँसकर इंसान को सत्य से दूर ले जाता है। इंद्रिय लालसाओं की पूर्तियों में फँसकर इंसान का पतन होता है। इसलिए इस मन को समझ मिलनी आवश्यक है ताकि यह सत्य पाने में मददगार बने।
नको रे मना क्रोध हा खेदकारी। नको रे मना काम नानाविकारी॥ नको रे मना सर्वदा अंगिकारू। नको रे मना मत्सरू दंभभारु ॥6॥
अर्थ – क्रोध का अंत दुःख में होता है इसलिए हे मन, क्रोध मत करो। विषयवासना से अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए उन्हें अपने अंदर मत आने देना। कभी किसी के लिए मत्सर मत रखना और न ही किसी से कोई ढोंग करना।
अर्क – क्रोध, ग्लानि लाता है। क्रोध करने से बाद में पछताना ही पड़ता है। विषयकामना मन में लोभ, मत्सर, द्वेष आदि विकार जगाती है। लालसा इंसान से ढोंग, कपट करवाती है। इसलिए क्रोध और विषयवासना से मन को दूर रखना आवश्यक है।
जय जय स्वामी समर्थ..