शिक्षा संस्कृति और संस्कार
भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है ।समाज में पुरुष प्रधान व्यवस्था होने के उपरांत भी, महिलाओं को बराबरी का दर्जा एवं बराबर का सम्मान देने की प्रथा है। तथाकथित आधुनिक समाज, आधुनिकता का हवाला देकर पुरातन संस्कारों को दकियानूसी बताकर, दुत्कार रहा है, और अंग्रेजी सभ्यता को अपना रहा है। हमारी मातृभाषा, मातृभूमि की उपेक्षा होने के कारण संस्कारों के अभाव में आधुनिक समाज का चारित्रिक पतन, अपराधीकरण ,व धन लोलुप होना है। जो ,उन्हें कुप्रवृत्तियों की तरफ धकेल कर नशा आदि का आदी बना देता है। इससे हमारे देश का भविष्य चिंतनीय हो सकता है ।यह अत्यंत चिंता का विषय है, कि, रोजगार की तलाश में ,सुंदर भविष्य का सपना संजोए ग्रामीण भारत ,कर्मठ भारत शहरों और विदेशों को पलायन कर रहा है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि ,पुरातन संस्कारों की नींव अत्यंत गहरी है ,अन्यथा ,भारतीय समाज अपनी वास्तविक पहचान कब का खो चुका होता ।हमारे माता-पिता पुरातन संस्कारों और रीति-रिवाजों का निर्वाहन करते हैं ।धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर उन पर आस्था प्रकट करते हैं ।यह बच्चों के कोमल हृदय पर अचूक छाप छोड़ता है ।
800 वर्षों की परतंत्रता के पश्चात हमारा देश और हमारी पुरातन सनातन सभ्यता और संस्कृति जीवित है । विषम परिस्थितियों में आक्रांता और लुटेरों द्वारा हिंसा, धर्म परिवर्तन लोभ- लिप्सा स्त्रियों पर हिंसा, बलात्कार ,मंदिरों में लूट हमारी संस्कृति को मटिया मेट करने के लिए काफी था। विदेशियों ने, हमारे संस्कारों रीति-रिवाजों पर प्रश्न खड़े किए। उनका हास्य व्यंग के माध्यम से खुला मजाक उड़ाया। जिससे हमारी मानसिकता आत्मग्लानि और उपेक्षा से भर गई, और ,तथाकथित आधुनिक समाज ने पुरातन संस्कारों को तिलांजलि देना प्रारंभ कर कर दिया। हम स्वयं ही हास्य के पात्र बन गए।
शिक्षा-
पुरातन समाज में भारतवर्ष अत्यंत समृद्धशाली था। भारतीय सौ प्रतिशत साक्षर होते थे ।उन्हें वेदों शास्त्रों का, धर्म -अधर्म का संपूर्ण ज्ञान था। गुरुकुल शिक्षा पद्धति निशुल्क थी। प्रत्येक ग्राम में आचार्य व विद्वानों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती थी ।संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है। इस भाषा ने आर्यभट, नागार्जुन वराह मिहिर जैसे बड़े बड़े शोधकर्ताओं को जन्म दिया है ।किंतु, परतंत्रता की बेड़ियों ने समाज में मदरसा शिक्षा पद्धति व विद्यालयों को जन्म दिया ।उर्दू- अंग्रेजी भाषा प्रधान षड्यंत्रों ने देश की संस्कृति व भाषा को मिटाने हेतु कुत्सित प्रयास आरंभ कर दिए ।हिंदी व संस्कृत भाषा गूढ़ व दकियानूसी घोषित की गई ।अंग्रेजी व उर्दू शिक्षित वर्ग की भाषा मानी जाने लगी ।शिक्षित वर्ग लॉर्ड मैकाले के षड्यंत्र से बुरी तरह प्रभावित हुआ ,और शिक्षा जीविकोपार्जन का माध्यम बन गई। 6तथाकथित अंग्रेजी बाबू धन उपार्जन हेतु नौकरी करने लगे ,और, चाटुकारिता से युक्त होकर अंग्रेजी उर्दू का पोषण करने लगे। देश की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ना होकर आँग्ल भाषा हो गया ।अंग्रेजी में संभाषण कर देशवासी गर्व महसूस करने लगे। शिक्षा के बड़े-बड़े महाविद्यालय विश्वविद्यालय अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने लगे ।जिससे धन उपार्जन कर विशिष्ट वर्ग में शामिल हो सकें यह हमारे देश का दुर्भाग्य था ।अब हमें जागृत होना चाहिए और शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। जिससे देशवासियों का मानसिक विकास, आत्मबल की उन्नति हो सके। विद्यार्थियों की जिज्ञासा व संवेदना का समाधान पूर्ण रूप से हो सके ।
संस्कार-
वास्तव में संस्कार उस विधि को कहते हैं ।जिसके द्वारा हमारी चित् वृत्ति शांत होती है ,और ,हमारी मानसिक उन्नति व जीवनशैली परिष्कृत होती है। सुसंस्कार हमें सच्चरित्र और सम्मान से आजीविका प्राप्त करने की कला सिखाते हैं।। भारतीय सनातन सभ्यता में जन्म से लेकर मृत्यु तक षोडश संस्कार की विधियां वर्णित है। जिन्हें, विधि विधान से संपन्न किया जाता है। जो निम्न वत हैं-
(1) गर्भाधान संस्कार
(2)पुंसवन संस्कार
(३)सीमांतोन्नयन संस्कार
(4) जात कर्म संस्कार
(5)नामकरण संस्कार
(6)निष्क्रमण संस्कार
(7) अन्नप्राशन संस्कार
(8) चूड़ाकर्म संस्कार
(9) कर्णवेध संस्कार
(10) विद्यारंभ संस्कार
(11)उपनयन संस्कार
(12) वेद आरंभ संस्कार
(13) केशांत संस्कार
(14)समावर्तन संस्कार
(15) विवाह संस्कार
(16) अंत्येष्टि संस्कार
भारतीय सनातन संस्कार सुशिक्षित आचार्य द्वारा संपन्न कराए जाते हैं ।घर में एक उत्सव का वातावरण होता है। हमारे समाज में अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार समस्त संस्कारों का पालन पूर्ण रूप से ना करके ,संक्षेप में मात्र 8 संस्कारों का पालन किया जाने लगा है।
सदियों की लूटमार ,हिंसा व सांस्कृतिक आक्रमण के कारण भारतवासी गरीब होते गए ।कभी कपास व मसालों की खेती करने वाला अग्रणी भारत नील की खेती करने पर विवश हो गया। लगान, जजिया कर ,संक्रामक रोगों के विस्तार ने हमारे प्राचीन भारत की कमर तोड़ दी। हमारे समाज में धनी और निर्धन के बीच या शोषक और शोषित वर्ग के बीच गहरी खाई बन गई। तब संस्कारों का अनुष्ठान व आचार्य सहित ब्रह्मभोज बेमानी हो गया। पाप पुण्य की परिभाषा बेमानी हो गई, और, संस्कारिक अनुष्ठान मात्र औपचारिकता निभाने तक सीमित रह गया ।आस्था बेमानी होती गई, और, संस्कारों का निर्वाहन ना केवल धन उपार्जन का माध्यम बन गया ,बल्कि, अतिव्यय व सामाजिक प्रदर्शन ,समाज में सामाजिक स्तर को ऊंच-नीच दिखाने हेतु प्रयोग किया जाने लगा। संस्कारों का निर्वाहन मात्र औपचारिक महत्व का रह गया। जिन संस्कारों से बालपन में मानसिक शांति, परिष्कृत जीवन शैली के नींव पड़ती थी ।वह मात्र औपचारिकता रह गई ।आजकल आचार्यों का सम्मान कठिन हो गया है, व उनके परिवारों तक की सीमित रह गया है ।आचार्य को लोभी लालची मानकर अनुष्ठान किए जाते हैं ।आस्था व विश्वास का पतन इस आर्थिक युग में हो रहा है। समाज का दृष्टिकोण अर्थ परक हो गया है ।अतः ,यह कहना सरासर गलत है ,संस्कारों का उपयोग मात्र धन उपार्जन हेतु किया जा रहा है । वर्तमान अर्थपरक युग, और वैज्ञानिक पद्धति ने हमारी वैज्ञानिक संस्कृति को ठेस पहुंचाया है, और सामाजिक आस्था व सकारात्मक विचारों का स्वस्थ जीवन शैली का अभाव परिलक्षित होने लगा है। समाज सांस्कृतिक, धार्मिक कार्य हेतु मितव्ययी व संकीर्ण विचारों से ग्रस्त हो गया है ।अतः हमें पुनः सत्य सनातन वैज्ञानिक पद्धति को अपनाकर ,सनातन संस्कारों को अपनाकर परिष्कृत शुद्ध जीवनशैली अपनानी चाहिए। जिससे समाज का चारित्रिक उन्नयन व मनोबल बढ़ सके। इसे हमें आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए।
डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव,”प्रेम