शिक्षा,समाज और न्याय
विषय उतना ही गंभीर है, जितनी गंभीरता से माता पिता अपने बच्चों के परीक्षा परिणामों के लिए रहते है।
और रोचकता ये है कि वे माता पिता और बच्चे केवल परीक्षा परिणामों के लिए ही गंभीर रहते है।
तो ऊपर कही गई बात वर्तमान भारतीय शिक्षा को कुछ हद तक परिभाषित कर सकती है।
और अब हम बात सामाजिक न्याय की कर सकते है,
लेकिन रुक कर देखना पड़ेगा हमे, क्या हम समाज बन पाए है या फिर अभी भी समाज बनने की कोशिश जारी है,
मेरी नज़र मे हम कुछ सालों से समाज को अच्छा बनाना तो दूर, सबसे निम्न स्तर पर ले जाने की ओर है।
एक बेहतर और समतामूलक समाज के निर्माण की प्रक्रिया मे न्याय व्यवस्था का निष्पक्ष होना बहुत जरूरी है और इसके लिए न्याय तंत्र को सरकार से लाखों किलोमीटर दूर रहना चाहिए
लेकिन भारतीय परिपेक्ष्य मे हमारे न्याय तंत्र के पास इतनी हिम्मत नही है कि वह कोई बस की टिकट लेकर दूर जाए बल्कि उल्टा वो AC car से सरकार के आस पास घूमता रहता है।
वर्तमान भारतीय शिक्षा,समाज और न्याय पर नजर डालने पर कुछ बाते सामने निकल कर आती है, एक उदाहरण से इसको समझ सकते है।
जैसे NCERT की पुस्तकों से कुछ पाठ इसलिए निकाल दिए कि बच्चो का बोझ कम हो जाए
समाज की कोई विशेष प्रतिक्रिया इस पर नही आई
अगर कोई पर्यटक भविष्य मे आकर हमसे पूछ ले
ये ताजमहल किसने बनवाया
समाज कहेगा – एक आदमी ने मिस्त्री से बनवाया
क्यों बनवाया?
शायद ,मिस्त्री को काम देने के लिए।
बड़ा नेक आदमी था
पता नही। सुना है कि उस मिस्त्री के हाथ कटवा दिए थे उस आदमी ने।
काम देकर हाथ कौन काटता है?
आप क्या काम करते है?
ये क्या होता है!!
मेरा मतलब नोकरी , कामधंधा?
ये क्या होता है!!
क्यों आपको भी डर हैं कि आप काम मांगोगे और हाथ काट देगे।
तो पहले शिक्षा को शिक्षा तो बनाओ
शिक्षा खुद अपने आप मे एक साधन बन कर रह गई है
समाज खुद अपने पैर काट रहा है
न्याय, आखों पर पट्टी बांध कर सो रहा है।