शिक्षक
“आप हर परिस्थिति में इतने शांत, धीर-गंभीर कैसे रहते हैं?” उसने आश्चर्य से कहा.
“मैं जीवन के रहस्य को समझ गया हूँ बेटा,” वृद्ध व्यक्ति ने अपनी उम्र से आधे उस जिज्ञासु युवा से कहा, “क्या मैं तुम्हें बेटा कहने का अधिकार रखता हूँ.”
“हाँ-हाँ क्यों नहीं, आप मेरे पिता की आयु के हैं,” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे कुछ ज्ञान दीजिये.”
“बचपन क्या है?” यूँ ही पूछ लिया वृद्ध ने.
“मूर्खतापूर्ण खेलों, अज्ञानता भरे प्रश्नों और हँसी-मज़ाक़ का समय बचपन है,” उसने ठहाका लगाते हुए कहा.
“नहीं वत्स, बाल्यावस्था जीवन का स्वर्णकाल है, जिज्ञासा भरे प्रश्नों, निस्वार्थ सच्ची हँसी का समय,” वृद्ध ने गंभीरता से जवाब दिया. फिर पुन: नया प्रश्न किया, “और जवानी?”
“मौज-मस्ती, भोग-विलास और एशो-आराम का दूसरा नाम जवानी है,” युवा तरुण उसी बिंदास स्वर में बोला.
“दायित्वों को पूर्ण गंभीरता से निभाने, उत्साह और स्फूर्ति से हर मुश्किल पर विजय पाने, नए स्वप्न सँजोने और सम्पूर्ण विश्व को नव दृष्टिकोण देने का नाम युवावस्था है,” वृद्ध ने उसी धैर्य के साथ कहा.
“लेकिन वृद्धावस्था तो मृत्यु की थका देने वाली प्रतीक्षा का नाम है,” वह तपाक से बोला. शायद वह बुढ़ापे पर भी वृद्ध के विचारों को जानना चाहता था, “जहाँ न ऊर्जा का संचार है, न स्वप्न देखने की ज़रूरत. बीमारी और दुःख-तकलीफ़ का दूसरा नाम जीवन संध्या. क्यों आपका क्या विचार है?” उसने मानो वृद्ध पर ही कटाक्ष किया हो.
“वत्स, तुम फिर ग़लत हो. जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया रखो.” वृद्ध ने अपना दृष्टिकोण रखा, “वृद्धावस्था उन सपनों को साकार करने की अवस्था है, जो तुम बचपन और जवानी में पूर्ण नहीं कर सके. अपने अनुभव बच्चों और युवाओं को बाँटने की उम्र है यह. रही बात मृत्यु की तो किसी भी क्षण और किसी भी अवस्था में आ सकती है, उसके लिए प्रतीक्षा कैसी?”
“आप यदि मेरे गुरु बन जाएँ तो संभव है मुझे नई दिशा-मार्गदर्शन मिल जाये,” नतमस्तक होकर वह वृद्ध शिक्षक के चरणों में गिर पड़ा.