शिकार और शिकारी
पता है सबको
इस जानवर का स्वभाव
देखने में कहीं से भी नहीं लगता हिंसक
फिर भी अब तक
निगल चुका है हजारों
धर्म से सजी
सुन्दर सजीव मूर्तियो को
पता है हर मूर्ति को कि
यह शिकारी आदमखोर जानवर
कभी भी
कर सकता है मूर्ति को
३५ टुकड़ों में विभक्त
या चढ़ा सकता है उस पर
काले कपड़े का आवरण
और बदल सकता है
पल भर में उसकी पहचान
परन्तु फिर भी
शिकारी के सम्मोहन में फंसी
हर मूर्ति न जाने कैसे
सोचती है
नहीं
मेरा शिकारी वैसा नहीं
वह मुझसे प्रेम करता है
सब ठीक चलने पर भी
बहुत जल्दी ही
बदल जाती है मूर्ति की पहचान
या
बंट जाती है सुकोमल मूर्ति
पैंतीस या ज़्यादा भी
मांस के नर्म टुकड़ों में
आखिर कब समझेंगी
ये मूर्तियाँ
कि शिकारी आखिर
शिकारी ही रहता है
उसे अपनी जाति का नहीं
दूसरी जाति का ही
शिकार करना होता है