शासन हो तो ऐसा
!! शासन हो तो ऐसा !!
सूबे के राज्य बिहार को भले ही जंगल 2 की उपाधि दिया जा रहा हो। शासन प्रशासन को गाली दिया जा रहा हो। सुशासन बाबू की कुशासन व्यवस्था की व्याथा कहीं जा रही हो। हालांकि ऐसा है भी। फिर भी इन सारे दोषारोपण को चीर हरण करते हुए अगर कोई किसी विभाग का सचिव केवल अपने धमक से उस विभाग की सारी व्यवस्था बदल दे। बदली हुई व्यवस्था की एक-एक दृश्य आम जनता के नजरों से दिखाई देने लगे। आम जनता उस विभाग की एक छोटी सी इकाई को भी बिना शिकवा शिकायत किए ही उस पर किए गए कार्रवाई से संतुष्ट होने लगे और अपने कामों पर सिर्फ ध्यान देने लगे। ऐसी व्यवस्था लाने वाले व्यक्ति के सूरत को बिना देखें उनके कामों की धमक से उनकी चम चमाती हुई सुन्दर चेहरा लोगों को दिखाई देने लगे और उनकी नाम आम जनता की जुबां पर आ जाए। तो उस सूबे की उस विभाग का असली नायक वह अधिकारी होता है।
किसी शिक्षक ने कहा था कि अगर आप कभी भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी करते हैं और संयोग से किसी विभाग का सचिव बन जाते हैं तो समझो कि आप उस विभाग का असल नायक हो। आप जो चाहोगे वह करोगे। आप जो चाहोगे वह करवा सकते हो। आपके बगैर उस विभाग का मंत्री भी अपना पंख नहीं मार सकता। बशर्ते आपके अंदर ईमानदारी से काम करने की क्षमता हो तब।
ऊपर में लिखी गई मेरे वाक्य के माध्यम से आप समझ गए होंगे कि हम किस के बारे में और किस विभाग के बारे में बात कर रहे हैं।
वर्तमान की हालिया घटना से मैं आपको परिचित कराना चाहता हूं। मेरे गांव में एक छोटा सा सरकारी विद्यालय है। छोटा सा विद्यालय कहे तो राजकीय प्राथमिक विद्यालय। जहां पर पांचवी तक की बच्चों की पढ़ाई कराई जाती हैं। कुछ दिन पहले तक की बात है कि यहां पर पूरी पांचवी वर्ग तक की बच्चों को पढ़ने के लिए मात्र तीन शिक्षक थे। उसमें से भी एक प्रधानाध्यापक थे और दो सहायक शिक्षिका थी। तीनों मिलकर के इतनी बढ़िया से विद्यालय को चलाने के लिए आपस में छुट्टी का अरेंज किए थे, कि पूछो मत! छह दिन के चलने वाले विद्यालय को दो-दो दिन की बारी-बारी छुट्टी के हिसाब से विद्यालय चलाते थे लोग। मतलब कि दो दिन एक शिक्षक नहीं आते थे, बाकी दो शिक्षक आते थे। फिर अगले दो दिन उसमें से एक शिक्षक नहीं आते थे, बाकी दो शिक्षक आते थे। फिर अगले दो दिन एक शिक्षक नहीं आते थे, बाकी के दो शिक्षक आते थे। इस तरह से कर करके वे लोग अपने विद्यालय को चलाते थे। बच्चों की पढ़ने से एवं बच्चों की भविष्य से कोई लेना-देना नहीं था। बस अपनी छुट्टी की जो व्यवस्था थी वह बहुत बढ़िया से अरेंज करके रखे थे और उसको बखूबी निभा रहे थे।
ऐसी विद्यालय की परिस्थिति को देखकर के लोग तंग आ गए थे। ऐसा नहीं था कि मेरे गांव की आम जनता उस प्रधानाध्यापक से शिकायत नहीं करते थे। पर शिकायत करने से कोई फायदा होता नहीं था। क्योंकि खुद प्रधानाध्यापक का कहना होता था कि जो शिक्षक या शिक्षिका छुट्टी में रहती है उनकी हाजिरी काट दी जाती है। हालांकि ऐसा होता नहीं था क्योंकि तीनों लोग आपस में दो-दो दिन की छुट्टी में रहते थे और सरकार के द्वारा कोई जांच आती नहीं थी। उसमें भी शिक्षिकाओं लोगों की एक अलग बहाना होती थी महावारी को लेकर के। उसके लिए प्रत्येक माह में दो दिन की छुट्टी मिलती है उस छुट्टियों में भी वे लोग हमेशा रहते थे।
ऐसे ही बगल के विद्यालय की हालात थी। जो महज मेरे गांव से दो किलोमीटर पर थी। जो राजकीय मध्य विद्यालय है। जहां पर पहली कक्षा से लेकर के आठवीं कक्षा तक की बच्चों को पढ़ाया जाता है। यहां पर कुछ अलग परिस्थिति थी। यहां पर प्रथम घंटी लगने के बाद मात्र बच्चों की हाजिरी बनाने के लिए कोई शिक्षक आते थे और जो आते थे वही कुछ पढ़ा देते थे। बाकी के समय किसका घंटी है? कौन पढ़ाने आएगा? इसकी कोई चाव चिंता नहीं रहती थी। यहां के प्रधानाध्यापक की ऐसी स्थिति थी कि वह तो अपना प्रभार किसी और को दे कर के वह विद्यालय कभी नहीं आते थे और अपने बिजनेस व्यापार में लगे रहते थे। और जो प्रभार में थे उनसे प्रश्न पूछे जाने पर कि विद्यालय में पढ़ाई क्यों नहीं होती है? तो उनका जवाब रहता था कि यहां पर शिक्षक कम है और बच्चे अधिक। उसमें भी सरकार खिचड़ी का जो कार्यक्रम चलाया है, इससे हम लोग और व्यस्त हो जाते हैं। जिसकी वजह से अच्छी सी पढ़ाई नहीं हो पाती है। ऐसा नहीं था कि यह जो खिचड़ी का कार्यक्रम है वह नया था। ऐसा भी नहीं था कि इस विद्यालय में पहले कभी पढ़ाई नहीं होती थी। क्योंकि हम खुद इस विद्यालय से पढ़े हुए हैं और बहुत अच्छी सी पढ़ाई होती थी और हम जब तीसरी या चौथी वर्ग में थे, उस समय से खिचड़ी का कार्यक्रम चलता आ रहा था। फिर भी पढ़ाई में कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती थी।
लगभग ऐसी स्थिति बिहार की सारी विद्यालयों की थी। इसमें हम दो विद्यालयों की चर्चा इसलिए किए हैं क्योंकि यह मेरे आंखों देखा हाल था और खुद मेरे द्वारा कई बार इन विद्यालयों के प्रति शिकायत भी प्रधानाध्यापक को किया गया था।
लेकिन ये सारी व्यवस्थाएं और सारी समस्याएं अचानक से समाप्त गई हैं। क्योंकि जब से शिक्षा विभाग के सचिव का पदभार के के पाठक नाम का व्यक्ति संभाले है। के के पाठक नाम का जो व्यक्ति है वह आव ना देखे ना ताव और अपनी इच्छा शक्ति अनुसार अपनी शिक्षा विभाग के ऊपर कड़ी निर्देश जारी कर दिए। उस निर्देश के अवहेलना करते हुए जो व्यक्ति मिल जाते हैं उनकी उस दिन की वेतन काट दी जाती है। इनके आने से शिक्षा जगत की सारे अधिकारी थर्रा उठे हैं। मानो तो गहरी नींद में सोए हुए व्यक्ति को अचानक से कोई जगा दिया है।
जो कभी समय से ड्यूटी नहीं जाते थे और कभी ड्यूटी चल भी जाते थे तो कुर्सी नहीं छोड़ते थे। वह अब समय से ड्यूटी पहुंचने लगे हैं और कुर्सी छोड़ अपने क्षेत्र में विद्यालयों की जांच करने लगे हैं। इस तरह जो शिक्षक समय से विद्यालय पहुंचते नहीं थे, वह अब समय से विद्यालय पहुंचने लगे हैं और समय पर विद्यालय की सारे काम करने लगे हैं।
जिन दो विद्यालयों की चर्चा मैंने की उन दोनों विद्यालय की भी स्थिति इतनी सुधर गई है कि पूछो मत! देख कर अब आनंद आ जाता है। कि शासन हो तो ऐसी हो कि बिना लोग के शिकायत किए बगैर उस विभाग में कार्य करने वाले सारे कर्मचारीयों के ऊपर दंडात्मक कार्रवाई हो जिससे वे लोग अपने आप कार्य करने पर उतर जाए।
जिन दो विद्यालयों की चर्चा मैंने की है। उस विद्यालय में अब पहले वाले जैसी जो समस्याएं थी वह अपने आप समाप्त हो गई है। अब किसी भी शिक्षक के पास या विद्यालय के प्रधानाध्यापक के पास किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं रही है। अब सभी विद्यालय सुचारू रूप से चल रहे हैं और उतना ही व्यवस्था में अच्छे से चल रहे हैं। अब नहीं किसी के पास शिक्षक की कमी है। नहीं किसी की पास खिचड़ी जैसी समस्या है। नहीं अब महिना के दो दिन जो माहवारी की छुट्टी मिलते थे, वह बार-बार छुट्टी लेने की जरूरत है।
इसीलिए मेरा कहना है कि अगर शासन ऐसी हो तो अपने आप ही सारी व्यवस्थाएं सुधर जाती है, सारी समस्याओं का जड़ समाप्त हो जाता है।
इस तरह से हम बिहार के शिक्षा विभाग के विधि व्यवस्था को सुधारने वाले माननीय सचिव के के पाठक जी को तहे दिल से धन्यवाद करता हूं।
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@जय लगन कुमार हैप्पी
बेतिया, बिहार।