शाबाश!
“ओह ! सात चालिस हो गए…अंधेरा भी हो गया! ये ट्रेफ़िक भी न, रोज देर हो जाती है…एक तो ऑफिस का लोड…उस पर ये टाईम डिफ़रेंस! यहाँ दिन खत्म होने का समय और लंदन में ऑफिस शुरू होने का ! ऊपर से ये पीक आवर्स में, लोकल ट्रेन में चढ़ने तक को जगह नहीं मिलती.!”
(इसी सोच में चौबीस वर्षीय, टैक्सटाईल इंजीनियर, वसुधा त्रिपाठी ऑफिस से लौटते हुए, बस से उतर कर, अँधेरी स्टेशन की ओर भीड़ से होते हुए, पूरी तेज़ी में जा रही थी कि अचानक ..)
“ कैसे छुआ तूने मुझे! हैं? हिम्मत कैसे हुई तेरी पीछे से मेरी शर्ट में हाथ डालने की !
कैसे हाँ कैसे ????”…..
( तड़..तड़…तड़…, ग़ुस्से में लाल, वसुधा ने कई थप्पड़ भीड़ में उस अंजान, अधेड़ आदमी को पलट, कॉलर से पकड़ कर, जड़ दिए…
वह आदमी सकते में आ लड़खड़ा गया..हाथ से उसके टिफ़िन ढनमना गया!
ग़ुस्से में लाल वसुधा और आसपास की भीड़ को देखते हुए उसने टिफ़िन वहीं छोड़, वहाँ से भागना ही बेहतर समझा…पर भीड़ ने झपट कर पकड़, उसे खूब पीटना शुरू कर दिया!
भीड़ !… ये वो लोग थे मुंबई के, जो भरे पड़े रहते हैं, हर वक्त, हर जगह, और उनकी भड़ास निकालने को ऐसे लोग बहुत काम आते हैं!
वसुधा को अब वो आदमी नहीं, बस पीटते लोग दिख रहे थे…अभी भी ग़ुस्से से काँप रही थी वो, साँस थी कि मीलों/ सेकेंड की रफ़्तार से भाग रही थी….और उसकी सोच निकल पड़ी थी, खड़े- खड़े …उस पल में, अतीत की पगडंडियों पर…)
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चौदह दिसंबर १९९८….कॉलेज से २:४५ दोपहर, एनुअल फ़ंक्शन की तैयारी से फ़्री हो, वो और उसकी सबसे प्यारी सहेली पवित्रा पिल्लई, घर बांद्रा जाने के लिए, किंग सर्कल स्टेशन के ओवर ब्रिज से, प्लैटफ़ॉर्म की ओर, अपनी धुनकी में चल पड़े।
हार्बर लाईन का स्टेशन होने के नाते, मुंबई के और स्टेशनों के मुक़ाबले, भीड़ वहाँ काफ़ी कम रहती थी और उस पर, दोपहर का समय !
उस दिन बस वो दोनों ही थे उस ब्रिज पर और एक पागल, जो रेलिंग पकड़ कर खड़ा था…उन्हें देखता हुआ..,फटे हाल, बेहद गंदा, बाल अधपके, उल्झे, लंबे ….दाँत पर पान के पीक का लाल रंग चढ़ा और चेहरा धूल से सना …
वहीं मिलता था वो, रोज! कभी बैठा, कभी सोया, कभी लोगों के आगे -पीछे भीक माँगता …कभी बीड़ी फूंकता !
उसके पास से गुजरते वक्त, रोज ही की तरह, दोनों ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया …
तभी अचानक ट्रेन के हार्न की आवाज़ सुन, वसुधा बोल पड़ी, “अरे भाग ..,ये ट्रेन छूट गई तो, अगली ४० मिनट बाद ही मिलेगी”। और वो दौड़ गई..कि अचानक उसने तेज़ चीख सुनी …।
“पवित्रा …..ये तो पवित्रा की आवाज़ है”
पल भर में उसके दिमाग़ ने बता दिया!
और तेज दौड़ते कदम उसके, झट से रूक, पीछे पलटे….
ये क्या?!! उस पागल ने पवित्रा को पीछे से दबोच रखा था और वो हेल्प-हेल्प चीख रही थी! पवित्रा खुदको छुड़ाने की भरसक कोशिश कर रही थी …,
वसुधा तो जैसे जड़ हो गई! वो कुछ सोच पाती कि अचानक पवित्रा ने पागल के हाथ को दांत से काट लिया।
वो छटपटा गया।
पकड़ कमजोर हुई और पवित्रा ने उस पागल को झटके से पीछे ढकेलते हुए, अपने आप को छुड़ा, बेतहाशा वसुधा की ओर, दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पीछे वो पागल भी संभलते ही भागा। ये देख वसुधा भी अब, “ऐ-ऐ रूक …” कहते हुए पागल को हड़काती, पवित्रा को बचाने उसकी ओर भागी …पर पवित्रा को वसुधा से पहले ही, नीचे मेन रोड को जाती ब्रिज की सीढ़ियाँ दिख गईं और वो पूरी तेज़ी से उसपर होते हुए नीचे को दौड़ी और …..पैर फिसल गया उसका…कई सीढ़ियाँ फिसलते हुए वो नीचे फुटपाथ पर जा गिरी …पागल ये देखते ही उन सीढ़ियों से ही उतर, बेसुध, गिरी पड़ी पवित्रा के पास से होता हुआ, पीछे की बस्ती की ओर भागने लगा।
वसुधा ये सब देखते हुए, बस पवित्रा की ओर दौड़ी चली जा रही थी! एक पल भी न रूकी थी !
जब तक वो नीचे पहुँची, वो पागल नदारद हो चुका था और पवित्रा खून से लथपथ पड़ी थी…वसुधा काँप रही थी …उसने आहिस्ता से पवित्रा का सिर अपनी गोद में रखा…भीड़ जो अब तक इकट्ठे हो गई थी… उसी में से किसी महिला ने, बदहवास वसुधा से पूछा ! “अरे क्या हुआ बेटी”!
पर वसुधा कहाँ कुछ सुन पा रही थी वो तो बस चिल्लाए जा रही थी ।
“ऐंबुलेंस बुलाओ! प्लीस ऐंबुलेंस बुलाओ जल्दी”…!!
और फिर एक आदमी की आवाज़ आई…”अरे! ये ज़ख़्मी लड़की तो मर गई लगता है”!
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और तभी वसुधा को झकझोरते, अतीत के मँझधार से, वर्तमान के किनारे पर लाते हुए, एक लड़के ने पूछा “मैडम आप ठीक हो ? वो भाग गया …इतना मार खाया है कि कभी भी, किसी लड़की को हाँथ नहीं लगाएगा! “
और वसुधा के कानों में, जैसे धीमे से किसी ने कहा…
“शाबाश !!!….”
पवित्रा हाँ पवित्रा की ही तो आवाज़ थी ये..!
कैसे भूल सकती है वसुधा उसकी आवाज!
उसकी चीखें, पिछले कई सालों से, उसके कानों में गूँजती जो रहती है !
वो ब्रिज का पागल तो, अपने झूठे पागल पन के आड़ में, बच गया था क़ानून से।
पर और कोई पवित्रा बलि न चढ़े किसी के पागलपन की, ये ज़िम्मा हम सबका !
वसुधा की आँखों से झर झर आँसु बह रहे थे…
एक नज़र उस लड़के को देख, वसुधा हल्के से मुसकाई ….और अँधेरी स्टेशन की ओर बढ़ गई !
-सर्वाधिकार सुरक्षित- पूनम झा (महवश)