शहीदों की शहादत और शहीदी का मर्म
शहादत देते वीर अपने,
शहादत से कब घबराये हैं,
पर अफशोस रहता इस. बात का है,
दुश्मन धोखे से आए हैं,
आकर सामने से वह वार करते,
तब हम मरते या वह मरते,
पर दो-दो हाथ हम करते,
खुदग्रजो तुमने तो डर कर ही मरना सीखा है,
और हमने मातृ भूमि पर ही मरना सिखा है,
मातृ भूमि की रक्छा करने की हमने शपथ खाई है,
मातृ भूमि के लिए हुए हैं,शहीद,हमने शपथ निभाई है,
हमने शहीद होने का प्रण लिया है,
हमें शहीद भी मान तो लो ।
क्या युद्ध और क्या छापामारी,
जान तो हर हाल में गई हमारी ।
वह बासठ की हो लडाई,या फिर पैंसठ की,
बात इक्कत्तर की हो या फिर कारगिल की,
हमला संसद पर हुआ हो या होटल ताज पर,
गोलियां पठान कोट पर खाई हों या उडी पर,
घात अक्छरधाम का हो,या पुलवामा पर,
मरने वालों में भेद कैसा,
किसी को शहीदी है हासील,
और किसी की शहादत को यह नसीब भी नहीं,
आखिर यह भेद भाव कब तक चलेेगा,
मरने वाला जवान यह रूसवाई कब तक सहेगा।