शहरिया निगल जाई देहात के
गिरावे ल आंसू बिना बात के //
निकालऽ समइया मुलाकात के //
समस्या हवे तऽ समाधान बा,
करऽ सब्र निकले द बस रात के //
बदल जाला मौसम छने छन इहाँ,
भरोसा का गर्मी आ बरसात के //
मुहब्बत बेमतलब दिखावा हवे,
हवस में बा आन्हर सभे गात के //
सभे आजकल रहनुमा हो गइल,
मजा लीं चुनावी ए सौगात के //
समस्या न केहू सुने ला इहाँ,
करे बाति नेता धरम जात के //
कहाँ लोग चाहे रहल गाँव में,
शहरिया निगल जाई देहात के //
जहाँ प्यार बा दर्द, आंसू मिली,
मुहब्बत न खेला ह शह-मात के //
सुनऽ ‘सूर्य’ सपना में आइल करऽ,
समझि लऽ तनिक यार हालात के//
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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