शहतूत का पेड़
11• शहतूत का पेड़
गर्मियों की छुट्टी में गाँव का स्कूल बंद हो गया ।लंबी छुट्टी में लड़कों को कुछ कुराफात ज्यादा ही सूझती है ।ऐसे ही में एक दिन गाँव में धनेश के मित्र भगवान का शहतूत खाने का मन हो गया ।गाँव के बाहर खेतों के बीच कूएं पर एक मज़े का शहतूत का पेड़ था। भगवान ने पके लाल-काले शहतूत देख रखा था ।एक दिन दुपहरी में जब चलती लू के थपेडों से बचने के लिए घर के सब बड़े आराम कर रहे थे, भगवान जी प्रकट हुए और चुपके से धनेश को साथ लेकर गाँव के बाहर खेतों की ओर चल दिए,शहतूत के पेड़ की ओर। अब भगवान की बात कौन टाले !
दोनों पेड़ पर अलग-अलग डालों पर बैठकर
बंदरों के जैसे तोड़ते-फेंकते शहतूत खाना शुरू किए।पर
बीच में भगवान को क्या सूझी कि लोभबस धनेश की ही डाल पर आ बैठे ।उन्हें लगा कि उस डाल पर ज्यादे शहतूत पके हुए हैं । बस फिर क्या था ! नाजुक डाल छोटी शहतूत की कुछ घबराई-शरमाई सी नीचे की ओर झुकी और जबतक मित्र-युगल संभलें तबतक ‘चर्र-मर्र ‘ की नाराजगी भरी आवाज़ के साथ नीचे जमीन पर! धनेश को चोट कम लगी,लेकिन डाल से शायद कहीं छिल जाने से भगवान के होंठ फटे और खून रिसने लगा ।
खैर, गनीमत यह कि ऊपर वाले भगवान ने मित्र भगवान की लाज रख ली और दोनों को पेड़ के नीचे स्थित
कुएं में गिरने से बचा लिया ।डाल किनारे गिरी थी। कहीं बहते पानी में दोनों हाथ-मुंह धोए और चुपचाप अपने-अपने घर जाकर सोने का अभिनय किए। लेकिन भेद खुल
गया क्योंकि भगवान का मुंह सूज गया था।उनकी माता जी ने धनेश की माई को कहानी बढ़ा-चढ़ाकर बताया ।थोड़ी-बहुत डाँट पड़नी थी,सो पड़ी ।उसके बाद घर के अमरूद के अलावा दोनों फिर कभी शहतूत के पेड़ पर नहीं चढ़े । उसकी तो स्मृति ही काफी है!
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता,12/01/2021,मौलिक/स्वरचित •