*शर्म-हया*
विषय : प्रेमातुर
शीर्षक – शर्म हया
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
विधा – स्वच्छंद – अतुकांत काव्य
युवा हुए प्रेमातुर सभी रोक सके न कोई ।
जब जब मौका दिखता चूमा चाटी होय ।
घर के भीतर , घर के बाहर , कॉलेज में या सड़क पर ।
बाग में खेत में खलियान में या फिर , करते बेधड़क ।
शर्म , हया लाज और लज्जा इनको कभी न सुहाई ।
सर्दी गर्मी बारिश सूखा चौबीस घंटा इनको लगी बेहयाई ।
सोते जागते सोशल मीडिया से रहता अनुबंध ।
छोटे बड़े , गुरुजन मात पिता का कामयाब नहीं कोई प्रतिबंध ।
युवा हुए प्रेमातुर सभी रोक सके न कोई ।
जब जब मौका दिखता चूमा चाटी होय ।
बचपन की डगर से निकलते ही , यौवन की राह पकड़ते हैं ।
प्रेमातुर रहते सदा , कोई मिल जाए ये मौका ताकते रहते हैं ।
एक से अनेक से और नहीं तो प्रत्येक से इनका विग्रह रहता है ।
चलते फिरते ताकते रहते सबको इनका एकाग्रित अनुग्रह रहता है ।
सामाजिक परिवेश न होता पारिवारिक अनुवेश न रहता ।
इनकी चांदी हो जाती अनुशासन के अभाव में आजादी तो मिल जाती ।
प्रेम कीजिए आदर कीजिए शिक्षा , परीक्षा सेहत पर भी ध्यान दीजिए ।
संतुलित संस्कारित आचरण का तो थोड़ा साहिब जी अजी मान कीजिए ।
खुली गाय से घूम रहे हो वस्त्र अलंकरण को देते वरीयता ।
खान पान सब औचक हुआ , सुन्दर दिखने को देते प्राथमिकता ।