शर्माजी के अनुभव : बहू का असुराल
बात छोटी सी है, मगर मुश्किल बड़ी है,
बहू बेटी दोनों बराबर, किस अंतर से छोटी बड़ी है।
दोनों इज्जत ही तो है अपने घराने की,
जिद सी क्यों है अहम दिखाने की।
ये बात ज्यादा पुरानी नही है
पर ऐसी है मुझसे भूली जानी नही है
सफर कर रहा था बस का
बस छोटा बैग और मैं तन्हा
साथ बैठी महिला मुझसे बड़ी थी
उनकी आंखें अपने हाथ की तस्वीर पर गड़ी थी
शायद उनके छोटे परिवार की तस्वीर थी
आंखों में थे आंसू और दिल मे भारी पीर थी
अचरज तब हुआ, तस्वीर के छोटे टुकड़े कर गिरा दिए
आंसू पोंछ कर आंखों के, उनके होंठ मुस्कुरा दिए
उलझन में कितनी बाते सोच गया पल में
लगा पत्थर पड़ ही गए हो मेरी अकल में
तभी टिकट टिकट की आवाज आई
मैंने पैसे दिए तब उसे सांस आई
फिर महिला से पैसे मांगे तो उत्तर मिला, नही है
टिकट बाबू बोला भाभी बस से उतरे ये मेला नही है
मैंने झिझकते हुए कहा क्या मैं दे दूँ
महिला ने मुझे एक नजर देखा, बोली क्या कहूँ
मैंने पूछा कहाँ का लेना है टिकट
महिला ने कुछ न कहा समस्या बड़ी विकट
मैंने अपने गंतव्य का टिकट ही एक और लिया
महिला ने देखा तो उनकी ओर बढ़ा दिया
महिला ने देखकर मुझे कहा भैया शुक्रिया
शुक्रिया मत कहें बस बता दे ये क्या किया
मेरे सवाल पर महिला की नजर ठहर गई
बोली परिवार नही मेरा जिस पर आपकी नजर गई
मैं बोला फिर दर्द क्यों था आपकी आँखों मे
बोली ये फंदा था जिसे काट पाई हूँ सालों में
हो चुकी बर्बादी नही, आजादी के आंसू छलके
मेरा दर्द मेरा अपना है बस, आपसे अच्छा लगा मिलके
मैंने कहा ठीक है और ना बताये न सही
अब कोई ठिकाना है जहाँ जाना हो कहीं
बोली बाहर की दुनिया मैंने देखी कभी नही
मैं बोला आप सी हिम्मत और नही कहीं
बोली ससुराल नही असुराल में रही हूँ ना
थप्पड़ घूंसे लात ताने और कितना कुछ सही हूँ ना
हर हाल में जीने की हिम्मत में जिंदा रही
दरिंदो के बीच में परकटा परिंदा रही
मैं बरबस पूंछ बैठा क्या कोई अपना नही आपका
बोली किस्मत में कंकर लिखे तो क्या दोष बाप का
मैंने कहा चाहे तो आप मायके चली जाए
बोली दिल के मरीज की क्यो बिन कसूर जान ली जाए
बून्द को गिरना अकेले है पवन भी क्या कर सकती है
कहने के दो घर बेटी के, बस इसमें सबर कर सकती है
मैं बोला भाई कहा है, कोई मदद कर सकूं तो बताये
मैं बर्तन चूल्हा ही कर सकती हूं भैया काम दिलवाये
मुस्कुरा उठा मैं उनके साहस का कायल था
पर उनके दर्द से आज अंदर तक घायल था
पिता बिदा कर भेजता है बेटी के लिए ससुराल
कैसे दूसरा घर ही बन जाता है बेटी के लिए असुराल
सोच रहा था गलती हुई पुरुषत्व को बड़ा कहने में
डर लग रहा था उनकी जगह भी खुद को रखने में
प्रवीनशर्मा
मौलिक स्वरचित रचना