शरीफों को, सरगोशी अच्छी नही लगती
दोस्तो,
एक मौलिक ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले मुलाहिज़ा फरमाऐं,,,!!
ग़ज़ल
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समन्दर को खामोशी अच्छी नही लगती,
शरीफों को, सरगोशी अच्छी नही लगती,
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फितरत हो जख़्म देने की, मुख से उनके,
सुनो, अब सरफरोशी अच्छी नही लगती।
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कर लिया मकसद पूरा कोई बात नही पर,
ये अहसान फरामोशी अच्छी नही लगती।
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अस्तीन के तुम सांप जो बन गये हो सुनो,
सिर तुम्हारे ताजपोशी अच्छी नही लगती।
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खुदगर्ज़ तुम इतना हों कि मुझको तुम्हारी,
अब कातिल गर्मजोशी अच्छी नही लगती।
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परवाह न की चालाकियों की मैंने “जैदि”,
अब मुझे, ये मदहोशी अच्छी नही लगती।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”