शरद
जा रही है शरद ऋतु
चुपचाप सी
दबे पाँव
लेकर अपने संग
अरमान कितने
ख़्वाहिशें अधूरी
रह गयीं
चाहत के पलों की टूटन
कुछ खो गये
कुछ पाते-पाते नहीं पा सकी
अफ़सोस तो है
पर कुछ सुकून भी है
किसी को कुछ देने का
ख़ुद को खोकर भी
बेशक याद न करे
कोई उसको
कोई अफ़सोस नहीं
जब ज़रूरत न हो
तब
बेक़द्र होकर रुकना भी
अच्छा तो नहीं
बेहतर है चले जाना
शरद का ।