शब्द
…जब शब्द नहीं पहुँचते तुम तक तो चुप्पी पहुंचाने की कोशिश करता हूँ.. जैसे प्रार्थना के क्षणों में कोई ईश्वर को याद करता है…मेरा आस्तिक होना, मेरे प्रेमी होने का सबूत भर है और ईश्वर मेरे लिए, तुम्हारे होने की परछाई भर है.. जब मैं कहता हूँ ईश्वर, बारिश से नम करो पृथ्वी,मन प्यास से सूखा जा रहा है तो यह ईश्वर से ‘तुम्हारी याद आ रही है’ कहना भर ही है..
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..छूट जाने पर लगता है, क्या आख़िरी कोशिश में हम चूक गए?.. क्या जीवन असमाप्य सवालों का पिटारा नहीं है? वो कौन सा आख़िरी क्षण होगा जो स्वीकार कर लेगा की यह अंतिम कोशिश थी, औऱ तुम्हारा मुझसे दूर जाने की नियति को नही बदला जा सकता था… जब मैं अपने अकेले क्षणों में कहीं बैठा होता हूँ, औऱ तुम्हें अपने पास अनुपस्थित पाता हूँ..तो उसी क्षण मैं ख़ुद को ईश्वर से ज्यादा शक्तिशाली मानने की कोशिश करता हूँ, औऱ ईश्वर के उस निर्णय को बदल देना चाहता हूँ, तुम्हें पुकार कर वापस बुला लेने की एक आख़िरी कोशिश कर के.. पर फ़िर एक ख़्याल आता है जिसमें ईश्वर का कुटिल अट्टहास गूंजता है- औऱ जबाब आता है, तुम्हारा जाना मेरी आख़िरी कोशिश की चूक पर नही, शायद तुम्हारे अंतिम निर्णय पर निर्भर था… और मैं उसी क्षण कंप जाता हूँ.. मेरा मन इन बातों को कभी स्वीकार नही करना चाहता… औऱ इस आख़िरी कोशिश को अपने सबसे कठिन समय के लिए रख छोड़ता हूँ हर बार ..
वे सच कहते है, एक ही समय में आप या तो प्रेम कर सकते है या बुद्धिवान हो सकते है..
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