शब्द
कितने ही निरर्थक शब्द जीवन शैली में अभिन्न रूप से जुड़ने लगते हैं कुछ और कब पता ही नहीं चलता।ऐसे बेअदबी शब्द जिनके कोई मायने नहीं होते फिर भी सुनकर ऐसे मुस्कुरा देते है या आवेश वश मुट्ठी भींच लेते हैं जैसे सुनने वाले ने अर्थ को ग्रहण कर ही लिया हो।अब ऐसे रोज़मर्रा में प्रयुक्त शब्दों को जानने समझने की क्या तदबीर हो मेरी समझ से परे है।मसलन कल एक शख़्स से बात करते हुए “सर ज़िन्दगी झंड हो चुकी है सब जगह लगी पड़ी है और बाॅस ने लेके रखी है और कल सुबह ही फिर लगेगी”।मैं वाक्य सुनते ही दुविधा में पड़ गया हालांकि अपने तरीके से जोड़-तोड़ के मायने भी निकाल लिए पर ऐसे शब्द भी रोज़मर्रा जीवन में कैसे जुड गये हैं मैं सोचकर हैरान ही हो गया और ऐसे शब्दों का शब्दकोश भी नहीं फिर भी आसानी से हृदय में उतर जाते हैं।ऐसे बेतुके शब्द छोटे बड़े तबके में आसानी से प्रचलित हैं पर विद् समाज
ऐसे निर्रथक शब्दों के प्रयोग से बचते हैं।मेरी साहित्यिक डायरी में ऐसे शब्द नहीं चूंकि ये बोलने के लिए ही हैं और फिर सबके सामने ऐसे शब्द प्रयोग करना ठीक भी नहीं।वो शख़्स तो अपनी कहकर लौट गया पर मैं ना चाहकर भी उसे अब तक याद कर रहा हूं उसके शब्दों के कारण उसकी तन्म्यता के कारण…
मनोज शर्मा