वक़्त और यादें
आज यूं ही बैठे -बैठे जैसे अतीत की यादों में खो गई थी “कुमोद”
बस मोबाइल में टक-टकी लगाए इस डिजिटल की दुनियां में पोते-पोतियों का चेहरा तो दिख जाता है,लेकिन गले लगाने को तो तरस गई हूं।
“खुद ही खुद बड़-बड़ा रही थी”
वह भी क्या दिन थे जब दोनों बेटों की किटर-किटर,एक दूसरे की चुगली,एक दुसरे को फिर बचाना, उनकी शैतानियां ,मानो घर भी जीवित सा लगता था।
एक बेटा कम से कम साथ रहेगा सोच तो यही था।
“लेकिन अच्छे भविष्य की लालसा कहां जाए”
जब बड़े बेटे की नौकरी लगी “बैंगलोर”, मानो हमारी खुशी का ठिकाना न था।सबको गर्व से कह रहे थे बैंगलोर जा रहा है।
लेकिन साथ मे ये भी जानते थे कि बस अब हमारी ज़िंदगी इसके साथ यहीं तक थी।
अब इसे उड़ना है,हांलनकी उसकी तरक्की भी चाहते थे।
और जानते भी थे ,ऊचाइयों को छूते-छूते समय की कमी उसे घर आने से रोकेगी,और धीरे-धीरे उसका आशियाना वहीं बन जाएगा।
“और ये घर सिर्फ घूमने की एक जगह जहाँ 1-2 साल में एक बार चक्कर लगाने आएगा”
पहले त्यौहार आते थे तो मायने थे,बच्चों का जोश देख, उनकी ख्वाइशें पूरी करें, उनकी बनी लिस्ट मुझे बहुत प्रिय थी।
उनकी डिमांड पूरी करवाने को अपने पति से गुस्सा होती थी।
उन्हें भी कहती थी डिमांड पूरी कर लीजिए कुछ ही सालों की बात है।
क्योंकि ये वक़्त है ,नहीं ठहरता।
और इस उम्र में याने की आज मैं इस बीते वक़्त को याद कर खुश हूं।
क्योंकि मैंने कुछ ऐसा बीते वक़्त में नहीं छोड़ा की मुझे लगे कि काश ये भी करती।।
“हाँ बस चाहती थी वक़्त रुक जाए”
आज छोटा भी चला गया,अब पता नहीं कब आएगा।
यकायक कुमोद के आँसू आखों से गिर पड़े।
कानों में आवाज़ आ रही थी जैसे रंजीत उसके पति ने उसे नींद से जगा दिया।
कब से आवाज़ दे रहा हूँ।रंजीत ने कहा।
“बूढ़ी हो गई हो सुनाई नही देता”
“हाँ-हाँ सुन रही हूँ।एक मीठी नोक-झोंक के स्वर से कुमोद बोली”
चलिए शाम की सैर का समय हो गया न,मैं जानती हूं।
और मीठी यादों को वहीं बन्द कर ,एक नई याद बनाते हुए,
रंजीत और कुमोद अपनी ही दुनिया मे फिर रम गए।
“मन बांवरा है,जितना मिले और पाने की लालसा में जीता है”।
लेकिन वक़्त तो वक़्त है,न किसी के लिए है थमा, न है रुका।
बस अच्छी बुरी यादों ने इसे है सबने याद रखा।
भारती विकास(प्रीति)