व्यक्तिगत स्वतंत्रता
जीवन भर हम संघर्षरत रहते हैं। अपने प्रिय जनों एवं परिवार के हितों की रक्षा करने के लिए इस संघर्ष में हम सब कुछ बलिदान कर देते हैं। स्वजनों की खातिर यहां तक की अपनी व्यक्तिगत रुचियां ,आवश्यकताएं , आकांक्षाएं और अपने घनिष्ठ मित्रों के प्रति अपनी अंतरंग भावनाएं सब कुछ तिरोहित कर देते हैं। अपनी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का मर्दन कर जाने अनजाने में मानसिक अवसादों एवं कुंठाओं का निर्माण करते रहते हैं। जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे शरीर पर पड़ता है। जिनसे हमारा स्वास्थ्य प्रभावित होकर हम विभिन्न अनिभिज्ञ शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होने लगते हैं। कभी-कभी तो समय रहते संज्ञान ना होने की अवस्था में इन सबके गंभीर परिणाम परिलक्षित होते हैं।
अतः यह एक गंभीर चिंतन का विषय है कि कहीं हम स्वजनों एवं परिवार की खातिर अपनी व्यक्तिगत स्वास्थ्य एवं स्वतंत्रता की अवहेलना तो नहीं कर रहे हैं ?
वस्तुतः भारतीय संस्कारों के पोषण में पारिवारिक हितों को सर्वोपरि माना गया है। समग्र रूप से यह आवश्यक भी है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि परिवार का वह वरिष्ठ सदस्य जिस पर परिवार के निर्वाह की जिम्मेवारी है अपने व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं हितों की अवहेलना करें।
अपने व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं हितों की रक्षा का दृष्टिकोण कतई स्वार्थपरक नहीं है। अपितु यह व्यक्तिगत कल्याण की भावना है।
जिम्मेदारियों के निर्वाह में हम अनभिज्ञ रहते हैं कि हम अपने परिवार के सदस्यों में परावलंबन गुणों का विकास कर रहे हैं जो उनके स्वावलंबन के गुणों के विकास में बाधक है।
दरअसल हमारी मानसिकता इस प्रकार है कि हम अभाव ग्रस्त होने पर भी परिवार के सदस्यों को यह प्रकट नहीं होने देते और स्वयं समस्याओं से निपटने की कोशिश करते रहते हैं। जबकि यह जरूरी है कि अभाव होने पर परिवार के सभी सदस्यों को इसका संज्ञान हो और वे अपनी आवश्यकताओं में अपेक्षित कमी कर अभावग्रस्त स्थिति से निपटने में सहयोग प्रदान करें।
अधिकांश परिवार में देखा गया है कि उनके सदस्य परिवार की वस्तुःस्थिति से अवगत नहीं होते और वे किसी काल्पनिक जगत में जी रहे होते हैं।
क्योंकि वे उनकी समस्त आवश्यकता एवं समस्याओं के निदान में उनके पालकों या वरिष्ठ सदस्यों पर निर्भर रहते हैं।
अतः परिवार के वे सदस्य जिन पर परिवार के निर्वाह की जिम्मेवारी है , उन सभी सदस्यों को जो सहयोग प्रदान करने की स्थिति में है, को समय-समय पर समस्याओं एवं अभावों से अवगत कराएं और उनका सहयोग आमंत्रित करें।
परिवार के समस्त सदस्यों में संकट की स्थिति में पारस्परिक सहयोग, सहअस्तित्व एवं सहिष्णुता की भावना का विकास करना होगा ।
जिससे समस्त सदस्य एकजुट होकर समस्याओं एवं संकटों का सामना करने के लिए तैयार हो सकें। तभी हम अपने व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं हितों की रक्षा करते हुए स्वस्थ एवं सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।