वो रोज़ निकालता है ऐब जहाँ में
वो रोज़ निकालता है ऐब जहाँ में
सैकड़ों ऐब छुपे हैं जिसके गिरेबां में
छोड़ा भी न गया हमसे नशेमन अपना
उड़ना भी था हमको खुले आसमाँ में
इतराने दो कश्तियों को अपने मुक़द्दर पे
बड़े-बड़े सफ़ीने डूब गए वक़्त के तूफ़ाँ में
दो भाइयों ने झगड़े में कई शहर जला दिए
ग़द्दारों का नफ़ा हो गया मुल्क के ज़ियाँ में
हम निकल पड़े तन्हा सदाकत की राह पर
हम हुए नहीं शामिल बेईमानों के कारवाँ में
– त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’, कानपुर