…वो बचपन, वो तुम्हारी गुटर-गुटर
वो बचपन कैसे भूल सकता हूं और भूल नहीं सकता तुम्हारी गुटर-गुटर….। मेरे दोस्त, तब इतनी आपाधापी नहीं थी…तुम भी स्वच्छंद थे और मैं भी स्वतंत्र। बचपन किसी कपोत की उड़ान जैसा ही तो होता है, निर्मल…डरा सा, सहमा सा, बहुत कुछ देख लेने की चाहत, छोटी इच्छाएं, बड़ी सी भावनाएं…। सच, कितना मीठा सा था वो बचपन। तुम मेरे घर की छत के रोशनदान में अकसर आकर गुटर गुटर किया करते थे, मैं तब छोटा था और यकीन मानो कि तब मुझे वो आवाज अकसर चिंता में भी डाल दिया करती थी कि आखिर मेरे दोस्त को कोई तो परेशानी है जो वो खुलकर नहीं बोल पा रहा…। मां से पूछा कि ये कबूतर इतना ही क्यों बोल पाते हैं….ये हमारी तरह सारी बातें कह क्यों नहीं देते….। मां मुस्कुराई और कहा वो जिनके लिए बोल रहे हैं वो उन्हें पूरी तरह समझ भी रहे हैं….। मैंने दोबारा सवाल किया हम क्यों नहीं समझ पाते….मां ने कहा वो भी तो हमें नहीं समझ पाते…तभी तो हमसे भयभीत रहते हैं….। मां की बातें पूरी तरह समझ नहीं आईं….। इतना समझ पाया कि उस ईश्वर ने हमें अलग-अलग बनाया है, वो नहीं चाहता था कि हम एक-दूसरे की भाषा और बोली को समझें…। मैं ये जिद नहीं करता कि ऐसा क्यों था लेकिन मेरे दोस्त एक बात अवश्य कहना चाहता हूं कि तुम्हारी उस गुटर-गुटर में तब चिंताएं अधिक होती थीं….मैं जानता था कि रोशनदान की दीवार जिस पर तुम बैठा करते थे वो छोटी और यकीन मानना मुझे वो डर सताता था कि कहीं तुम थककर आए और झपकी लगने पर गिर न पडो….कई बार खिड़की से देखता था….तब मां कहती थी कि उसे कुछ नहीं होगा….उसे ईश्वर ने बहुत ताकतवर बनाया है…सोचता हूं कभी मां कहती थी इंसान ताकतवर है और कभी कहती थी कि परिंदा….। मुझे लगता है असल ताकतवर तो वो है जिसने इंसान और परिंदे को साथ बनाया और करीब रहने के तौर’तरीके सिखाए और समझाए….। दोस्त तुम अब भी मुझे उतने ही भाते हो, उम्र बढ़कर कापफी आगे निकल आई है लेकिन बचपन तो कांधे पर ही सवार है…। वो जिद करता है, उतरने की बात पर मेरे गले और मन से लिपट जाता है…।
संदीप कुमार शर्मा