******वो चिट्ठियों का जमाना*****
******वो चिट्ठियों का जमाना*****
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वो भी चिट्ठियों का क्या जमाना था,
कागज के टुकड़ों से प्रेम बताना था।
डाकिया घर की कुंडी खड़काता था,
प्यारे हाथों से खत को पकड़ाता था,
बंद चिट्ठी में ख़बरों का खजाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या जमाना था।
साईकल की घंटी जैसे ही सुनाई दे,
खुशखबरी की कोई आन बधाई दे,
नीले रंग के टुकड़ों का दीवाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या ज़माना था।
चिट्ठी का कोना फटा सा दिख जाए,
देखते ही आँखों से आँसू आ जाएं,
अनहोनी का संकेत वो दिखाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या जमाना था।
प्रेमपत्र को प्रेयसी सीने लगाती थी,
ख्वाबों की दुनिया में खो जाती थी,
प्रेम अनुभूति भरा खरा निशाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या ज़माना था।
चिट्ठी से मनसीरत चित खिल जाए,
रोये तो कभी मंद मंद वो मुस्कराए,
खुशी गमों से भरा ठोर ठिकाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या जमाना था।
वो भी चिट्ठियों का क्या जमाना था,
कागज के टुकड़ों से प्रेम बताना था।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)