वो चाहता है उसे मैं भी लाजवाब कहूँ
ग़ज़ल
वो चाहता है उसे मैं भी लाजवाब कहूँ
किसी चराग़ को कैसे मैं आफ़ताब कहूँ
वो गुलबदन है ज़बाँ पर हैं उसके काँटे भी
तो सोचता हूँ उसे क्या मैं अब गुलाब कहूँ
ख़ुदा ने रुख़ पे दिया क्या जो एक तिल का निशाँ
उसे ये ज़िद है उसे अब मैं माहताब कहूँ
हैं ऐब मुझमें कई झाँक कर जो देखा है
ये हक़ नहीं है मुझे तुमको अब ख़राब कहूँ
मेरी वफ़ाओं का बदला जफ़ा से देते वो
अनीस तुम ही कहो क्या इसे हिसाब कहूँ
अनीस शाह “अनीस”