वो ख़ुद हीे शराब-ए-अंगूर सी महक रही है ,
वो ख़ुद हीे शराब-ए-अंगूर सी महक रही है ,
एक तो मस्त सावन, दूजे बागों में टहल रही है।
यों नशीला हुआ है उनकी हाज़िरी से गुलशन,
गेंदा गुलाब मधुमालती चमेली, मचल रही है।
बंदे जो नाज़नीनों से दूरी बनाए थे सालभर,
हाल-ए-आलम नीयत उनकी पिघल रही है।
असर-ए-हुस्न-ए-बेख़ुदी तो देखिए शबाब में,
वो बांहों में नाज़ुक फूल-कलियों के, ढल रही है।
आज मालूम पड़ा सबब, शहर में गरमी का,
कि बेताब आग, बारिशों में कहाँ जल रही है।