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26 Jul 2024 · 4 min read

वो एक रात 9

वो एक रात 9

बटुकनाथ उन चारों को लेकर वापिस धूनी पर बैठ गया।
“अब मुझे ये बताओ, आखिर वो धूमावती की आदमकद मूर्ति कहाँ गई? ”
आग का गोला कब का पश्चिम की गोद में समा गया था। संध्या भी विदा कह चुकी थी। थी तो केवल अब रात की नीरवता। रात का सन्नाटा इस समय चारों ओर के वातावरण को भयावह बना रहा था। चारों के चेहरे पर घबराहट स्पष्ट दिख रही थी।
चारों एक-दूसरे को देख रहे थे। अचानक बटुकनाथ की भारी आवाज गूँजी।
“बताओ मूर्खों, क्या सोच रहे हो? ”
चारों सिहर उठे। वो समझ चुके थे। अघोरी जिद का पक्का है। उनका पीछा आसानी से छोड़ने वाला नहीं है।
और इस तरह चारों ने मानो आँखों ही आँखों में अघोरी की बातों का जवाब देने का निर्णय कर लिया।
“बाबा कभी इस मंदिर में काफी चहल-पहल रहा करती थी। सुबह-शाम माता की आरती होती थी। लोगों का आना-जाना लगा रहता था। सामने वो गाँव हैं न, उस गाँव का मुखिया प्रतिदिन इस मंदिर की आरती में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता था। मंदिर के पुजारी दयानंद जी मंदिर की सेवा में दिन रात लगे रहते थे। एक दिन…… ”
“एक दिन क्या….. रुक क्यूँ गए!”
उनमें से एक आदमी के चुप होते ही बटुकनाथ चिल्लाया।
फिर उनमें से दूसरे आदमी ने कहना शुरू किया।
“फिर एक दिन…. गाँव से दस साल तक की कन्याएँ गुम होने लगी। फिर धीरे-धीरे 16-17 साल तक की लड़कियाँ भी अचानक गायब होने लगी।”
“क्या!” बटुकनाथ ने हैरत से मुँह खोला।
“हाँ महाराज, और गाँव के मुखिया का व्यवहार भी अचानक बदल गया था। लोग उसके पास शिकायत करते वो लोगों पर गुस्सा होता और उन्हें भगा देता था। फिर एक दिन गाँव वालों ने एक अजब ही मँजर देखा।
और मानो वो आदमी जो ये सब बता रहा था फ्लैशबैक में खोता चला गया और बटुकनाथ ये सब हैरत से मुँह खोले सुनता रहा।
“दाताराम जी, दाताराम जी….. गजब हो गया! ” बदहवास सा दौड़ता हुआ एक ग्रामीण पीपल के पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर बैठे आदमियों से बोला।
“क्या हुआ?” दाताराम जी ने उठते हुए कहा।
“दाताराम जी गोपाल की लड़की गायब हो गई, चहुँओर खूब ढूँढा पर मिल ही नहीं।”
“फिर एक लड़की” चिंता से घबरा उठे लोग। और जल्दी से खडे़ होकर गोपाल के घर की ओर भागे।
गोपाल के घर रोना-धोना मचा था। गोपाल की पत्नी बुरी तरह विलाप कर रही थी। और गोपाल एक तरफ खड़ा सुबक रहा था।
दाताराम जी मुखिया सदासुख के चाचा थे। लोग उनकी बडी़ इज्जत करते थे।
दाताराम को देखते ही सब उनके पास चले आए।
“औरतों को कहो रोआराट न करे। अब हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा। आखिर लड़कियों को कौन अगवा कर रहा है। और क्यूँ नहीं मिल पा रही हैँ वे। गोपाल! अब रोने से कोनू फादा होने वाला। अब हमें ही कुछ करना पडे़गा।”
“दादा, मेरी तो नंदी ही सब कुछ थी। मेरा तो सब कुछ लुट गया।” विलाप करते हुए गोपाल बोला।
दाताराम ने गोपाल के कंधे पर हाथ रखा “गोपाल सब्र करो, तुमसे पहले भी कइयों के चिराग बुझ गए। आखिर इन सबके पीछे है कौन!” चिंतामग्न हो गए दाताराम।
तभी अचानक एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया-
“चाचा जी चाचा जी मुखिया जी बापू टीला जंगल में भागते हुए जा रहे हैँ।”
“बापू टीला के जंगलों में!” सभी एक साथ चौंके।
“भाइयों सदासुख का पीछा करो, वो वहाँ क्यूँ जा रहा है?”
दाताराम के इतना कहते ही सभी लोग अपने-अपने घरों से हथियार लेकर बापू टीला के जंगलों की ओर चल पडे़।
********************************************
फादर क्रिस्टन ने धीरे-धीरे आँखें खोली। सामने उनके साधू दिखाई पडे़। आज अगर ये साधू नहीं होते तो वे भयंकर आकृतियाँ मुझ पर कहर बरपा देती।
“थैंक्यू वैरी मच साधू बाबा आज अगर आप नहीं होते तो…. ”
“अभी खतरा टला नहीं है फादर, अभी तीन ही बजे हैं। रात बहुत बाकी है।” साधु ने सर्द आवाज में कहा।
“तो….. वे भयंकर आकृतियाँ यहाँ….. मंदिर में….. पवित्र स्थान पर भी आ जाएँगी क्या!” डर से सिहरते हुए फादर ने कहा।
“कुछ भी नहीं कहा जा सकता फादर, हमें बिलकुल निश्चिंत भी नहीं होना चाहिए। आज अमावस्या की रात है, दैविक शक्तियाँ इस रात क्षीण होती हैँ।” अचानक साधु बाबा फादर की ओर पलटे।
“जानते हैं फादर कौन थी ये भयंकर आकृतियाँ? ”
“कौन थी?” भयमिश्रित विस्मय से पूछा फादर ने।
“डंकपिशाचिनियाँ।”
सुनते ही फादर काफी ऊँचाई तक उछल पडे़।
“डं… क… पिशाचिनियाँ!”
“इच्छाधारी होती हैँ ये…. नए-नए रूप धर सकती हैं ये। बहुत ही खतरनाक और बिगडा़ हुआ रूप है इन चुड़ैलों का। प्रेतलोक से निर्वासित होती हैँ ये। अपना एक अलग ही इलाका होता है इनका। इनके इलाके से 100 वर्ग किलोमीटर तक का क्षेत्र दूषित हो जाता है। हवाओं में एक अलग ही प्रकार की गंध होती है। कोई बिरला ही उस गंध को महसूस कर सकता है। अपने जिंदा शिकार को ही चबा डालती हैं ये। अपने शिकार की छटपटाती चीखें बहुत पसंद होती है इन्हें।”
साधु अपनी रौ में डंकपिशाचिनियों का वर्णन करता जा रहा था और फादर…… भय से काँप रहा था। डरना वाजिब था। आखिर मौत की बू तो वो भी सूँघ चुका था।
उधर….. मंदिर के पीछे के पेड़ पर दोनों डंकपिशाचिनियाँ उलटी लटकी हुई थी। और अपनी द्विपार्श्वित लंबी भयानक जीभ को लपलपा रही थीं।
अपने शिकार का आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली थी वे………. ।
सोनू हंस

Language: Hindi
80 Views
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