वो एक रात 5
#वो एक रात 5
चारों दोस्त भी गाँव से आई आवाज की ओर चल दिए। शोर बढ़ता जा रहा था। भीड़ ने एक घेरा सा बना रखा था। न जाने क्या बात थी। जैसे ही चारों भीड़ के पास पहुँचे उन्हें बुरी तरह से रोने की आवाजें सुनाई दी। चारों ने एक दूसरे की ओर देखा और जल्दी से भीड़ के पास पहुँच गए।
वहाँ का वीभत्स नजारा देखते ही चारों उछल पडे़। यहाँ तक की सुसी और इशी को तो चक्कर आ गए थे।
खेत में, जो कि पानी से भरा था, उसमें एक आदमी की लाश पडी़ थी। ऐसा लगता था जैसे उस आदमी के मास को शरीर के हर हिस्से से नोचा गया हो। आधा चेहरा भी कुचला हुआ था। लाश की बुरी हालत होने के बावजूद उसके परिवार वालों ने उसकी शिनाख्त कर दी थी और अब वे रोते हुए लाश को घर ले जाने की तैयारी में लगे थे।
“ओह गोड, कितनी बुरी तरह से मारा है इसे।” मनु बोला।
“लगता है हत्यारे की जाति दुश्मनी होगी कोई।” इशी बोली।
“तुहार को का लगता है मैडम जी, चतरू को कोनू आदमी ने मारा है।”
गाँव के एक आदमी ने उन चारों की बातों में हिस्सा लेते हुए कहा।
“तो, किसी जानवर ने मारा होगा।” दिनेश बोला।
“नाहीं बाबूजी, इ काम कोनू जिनावर या आदमी का नाहीं है।”
“तो फिर! ” चारों ने हैरत से उस आदमी को गौर से देखते हुए कहा।
“डंकपिशाचिनी का।” गाँव वाले ने इतने ठंडे लहजे में कहा कि चारों के शरीर में सिहरन दौड़ गई।
और इतने में गाँव वाला जा चुका था। पुलिस आ चुकी थी परंतु गाँव वालों ने लाश ले जाने से मना कर दिया था। पुलिस जानना चाहती थी कि आदमी की मौत कैसे हुई इसलिए पोस्टमार्टम के लिए ले जाना चाहते थे। लेकिन गाँव वालों ने मना कर दिया था। उन्होंने कहा कि हम पहले से ही जानते हैं कि उसकी मौत कैसे हुई। गाँव वालों ने कोई रिपोर्ट भी नहीं की। थक हारकर पुलिस वाले वापिस चले गए।
दिनेश, मनु, सुसी और इशी वापिस अपनी कार की तरफ चल दिए। उन सबके मन में एक झंझावात चल रहा था।
“ये डंकपिशाचिनी क्या चीज है यार!” इशी ने लापरवाही से पूछा।
“कुछ नहीं है, बकवास है! किसी ने इन सीधे-सादे गाँव वालों का बेवकूफ़ बना रखा है।” दिनेश ने कहा।
“मुझे तो लगता है कि कुछ तो बात जरूर है।” मनु ने कहा।
“हाँ, नहीं तो उस आदमी की मौत कैसे हुई? ” सुसी ने कहा।
“किसी जंगली जानवर के काम हैं ये, जिसे ये गँवार डंकपिशाचिनी का काम कहते हैं।” दिनेश ने कंधे उचकाते हुए कहा।
“यही है।” इशी ने कहा।
“मनु, तुम तो साइंस के स्टूडंट हो फिर भी यकीन कर रहे हो।” दिनेश ने कहा।
“दिनेश, बात यकीन की नहीं है, बात है आखिर हो कैसे रहा है और क्यूँ हो रहा है और कौन कर रहा है, क्योंकि घटनाएँ तो घट ही रहीं हैँ न चाहे उनके पीछे कारण कुछ भी हो।” मनु ने काफी गंभीरता से कहा।
सभी चुप हो गए और मनु की बात सच थी। इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता था। क्योंकि चारों ने उस आदमी की लाश देखी थी।
चारों अपनी गाड़ी के पास पहुँच चुके थे। 2 से ऊपर का समय हो चुका था।
“अब हमें चलना चाहिए।” इशी ने कहा
“कहाँ जाएँगे हम! हमे किसी से रास्ते के बारे में तो पूछना ही चाहिए या किसी को साथ लेकर चलना चाहिए।” सुसी नेकहा।
सच तो यह था कि आदमी की लाश को देखकर सुसी और मनु घबराए हुए थे। दिनेश ने ये सब भाँप लिया। उसने सोचा जंगल में सौ बातें अजीब घट सकती हैं, अगर इनके मन में डर बना रहा तो घूमने का और कैम्पिंग का मजा ही नहीं आएगा। थोड़ा झुंझला गया दिनेश।
” देखो, सभी मेरी बातें सुनो अगर तुम सब मन से तैयार हो और डर नहीं रहे हो तो बताओ आगे बढा़ जाए वरना यूँ डरकर क्या मजा आएगा। जंगल, जंगल होता है वहाँ कुछ भी अजीब घट सकता है। रोमांच इसी को ही कहते हैं, अगर हम पहले से ही डरे हुए से होकर वहाँ जाएँगे तो क्या एन्जॉय करेंगे? इसलिए अगर तुम सब डरपोक हो तो रहने दो घूमना-फिरना और कैम्पिंग वैम्पिंग, मैं गाड़ी वापिस घर की ओर मोड़ता हूँ।” इतना कहकर दिनेश गुस्से में गाड़ी की ओर गया और उसे स्टार्ट करने लगा।
“नहीं दिनेश मुझे कोई डर नहीं है, मैं तो तैयार हूँ। इशी ने इतना कहा और गाडी़ में बैठ गई। सुसी और मनु ने एक दूसरे को देखा और गाड़ी में बैठ गए।
“तू खुद को इतना बहादुर समझता है और हमें डरपोक मानता है, और हमने वापिस चलने को कब कहा! ”
मनु की इस बात का इशी और सुसी ने भी समर्थन किया। दिनेश मन ही मन खुश था वह अपने उद्देश्य में सफल हो गया था। वह अपने दोस्तों के मन से डर निकाल चुका था।
तभी इशी को मजाक सुझी वह जोरों से सुसी के कान के पास चिल्लाई, “डंकपिशाचिनी……… ” सुसी उछल पडी़। तीनों जोरों से हँसने लगे।
“अच्छा इशी की बच्ची मुझे डराती है, अभी बताती हूँ तुझे।”
और इस तरह चारों दोस्त हँसी-मजाक करते हुए उस रहस्यमय जंगल की ओर चल पडे़।
वह चेचक के दाग वाला आदमी उनकी गाडी़ को जंगल की ओर जाते हुए देख रहा था।
“अपनी मौत की ओर कितनी खुशी खुशी जा रहे हैं बेचारे, मरेंगे चारों के चारों।” इतना कहकर वह गाँव की ओर चल पडा़।
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बटुकनाथ चलता हुआ एक छोटे से पहाड़ की ओर पहुँच चुका था। पहाड़ के उस पार बहुत विशाल जंगल फैला था। बटुकनाथ को प्यास सी महसूस हुई। बटुकनाथ ने देखा कि पहाड़ की चोटी पर एक मंदिर बना हुआ था। “हो सकता है आस पास कोई गाँव हो।” बटुकनाथ बड़बड़ाया। लेकिन यहाँ तो किसी गाँव के चिह्न दिख भी नहीं रहे। मंदिर में चलता हूँ हो सकता है वहाँ पानी हो और कोई आदमी भी मिल जाएगा जिससे आगे का रास्ता मालुम किया जाए।
बटुकनाथ के अनुसार “पहले ‘बापू टीला’ का जंगल आएगा और फिर उसके बाद उत्तमनगर के पश्चिम में फैला जंगल आएगा जिसके बीच में ही या आस पास त्रिजटा पर्वत है, और वहीं है मेरी वर्षों के धीरज का फल और तपस्या का परिणाम, श्रांतक मणी।” श्रांतक मणी का नाम लेते ही बटुकनाथ को पंख लग जाते थे। उसे जोश आ जाता था।
‘बापू टीला’ पृथ्वी पर एक टीलेनुमा उठा हुआ भूभाग था, जो जंगलों से घिरा था। बापू टीला के जंगल भी अपने आप में रहस्य समेटे थे।इन जंगलों में भी कोई नहीं जाता था। कहा जाता है कि इन जंगलों में क्रांतिकारी अंग्रेजों को पकड़कर रखते थे और उन्हें घोर यातनाएँ देते थे। घने जंगल होने के कारण अंग्रेज इस जंगल में घुस न पाए और क्रांतिकारियों को इस जंगल के चप्पे-चप्पे का पता था। वे इस जंगल के हर रास्ते से वाकिफ थे। आजादी के बाद इन जंगलों को काटा नहीं गया। इस जंगल में जाने वालों के साथ अनहोनी घटनाएँ होने लगीं। आसपास के निवासियों के अनुसार रात को जंगल में से रोने चिल्लाने की आवाजें आती थीं। इस जंगल से गुजरने वालों की या तो लाशें मिलती थी या वे गायब हो जाते थे। लौटकर वापिस नहीं जा पाते थे। अत: बापू टीला के जंगलों में लोगों ने जाना छोड़ दिया। सरकार ने भी इन जंगलों में जाना प्रतिबंधित कर दिया था।
बापू टीले और उत्तमनगर के जंगलों की सीमाएँ भौंरी नदी ने निर्धारित कर दी थी। भौंरी नदी के उस पार उत्तमनगर के जंगल थे और इस पार बापू टीला के जंगल थे।
बटुकनाथ पहाड़ के रास्ते से मंदिर में पहुँच चुका था। बटुकनाथ को घोर आश्चर्य हुआ। पहाड़ के पूर्वी भाग में एक पूरा का पूरा गाँव बसा हुआ था और पहाड़ के दूसरी तरफ जंगल ही जंगल थे। नीचे से गाँव के कोई लक्षण ही नहीं दिखाई दिए थे। मंदिर में जाकर बटुकनाथ ने देखा कि कुछ आदमी एक धूनी के चारों ओर बैठे थे। धूनी से धुंआ उठ रहा था और वे लोग चिलम खींच रहे थे। कमाल की बात थी, मंदिर बना हुआ था परंतु मंदिर में कोई गर्भ गृह या किसी देवी-देवता की मूरती नहीं थी।
बटुकनाथ को देखकर वे लोग डर गए। क्योंकि उसका व्यक्तित्व अघोरी का था। और अघोरियों से लोग घबराते थे। बटुकनाथ धूनी के पास पहुँचा और वे लोग धूनी छोडकर एक ओर खडे़ हो गए………. ।
सोनू हंस