वो अभागा एक पिता है
कुछ कमाने की ललक में
दोपहर भर,रात तक मे
थक चुका बूढ़ा बदन श्रमबिन्दुओं से सींचता है
वो अभागा इक पिता है।
हर सुबह पहली किरण से
तन बदन पूरे जतन से
घर-गुलिस्तां को सजाने फूल ढूंढे हर चमन से
जो फ़टे हालात में भी मुस्कुराहट ओढ़ता है
वो अभागा इक पिता है।
जो सदा दुख की घड़ी में ढाल बनकर के खड़ा था
जो तुम्हारी गलतियों में भी सदा सबसे लड़ा था
तुम उसी को छोड़ आये चंद सिक्कों की बदौलत
इक पड़ोसी ने उठाया एक दिन वो गिर पड़ा था
वो तुम्हारे लड़कपन के दिन सुहाने खोजता है
वो अभागा एक पिता है।
दौलतें रुस्वा करीं उसने तुम्हारा प्यार पाकर
और तुम सब मांग लाये जो रखा उसने बचाकर
अब कहीं कुछ न बचा तो दूर रहना लाज़मी था
प्यार के दो बोल भी मिलते कहाँ सब कुछ लुटाकर।
प्यार की वो याद सारी आंसुओं में घोलता है
वो अभागा इक पिता है।
राज के अफसर बड़े हो जानता हूँ काम होंगे
सर ,जनाब और साहिबों में तेरे चर्चे आम होंगे
हो कभी फुर्सत तुम्हे इक रोज़ मिलने आओ लल्ला
अब किसी के द्वार पर न जाएंगे, बदनाम होंगे।
बस यही कहते हुए वो रोज़ अल्बम खोलता है
वो अभागा इक पिता है।