वोटर और चुनाव
एक आदमी जो झोल़ा उठाये दिनभर घूमता
सुबह एक नियमित समय शायं घर लौटने का भी
दिनभर लोग ताश खेलने, हुक्का पीने, हररोज शायं शराब की लत, घर की मूलभूत आवश्यकताओं पर कोई ध्यान तक न रखने वाले भी उस अजनबी मुसाफ़िर को ऐसे घूरते शायद जैसे कुछ उनका कुछ छीन रहा हो,
न कोई बात
न बोलचाल
न दुआ
न सलाम
ताश खेलने वा हुक्का पीने वाली मंडली शायद खुद को सामाजिक होने की अकड़ में
खैर
जो लोग समय का नियमन नहीं जानते
उनके सामाजिक होने से फर्क भी क्या पड़ता है,
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समाज में जाति धर्म-सम्प्रदाय कुल-वंश खाप पंचायत पुरानी दलील उपाय राजनैतिक घटना-चक्र
जैसे समाज की झलक यानि लकीर जिसे रीति-परंपरा कर्मकाण्ड क्रियाकलाप के आधार हो,
जैसे सारे फैसले उनसे होकर गुजरते हों,
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एक दिन वे उस वे उस मुसाफिर से उलझने का फैसला करते है,
वे तरह की साखियाँ पहेली बुझाने लगे,
बातें वही रिश्ते नाते पहनावे रहन-सहन से आगे न बढ़ पाई,
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वे लोग एक राजनैतिक परिवार के ठेकेदार निकले,
वे अपने अधिकार कर्तव्यों से अनभिज्ञ सिर्फ़ अपने-अपने परिवार के लिये नेताओं से समन्वय साधते और शांत रहते,
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गाँव में पंचायती-राज और प्रशासन के बारे में अनभिज्ञ ये अपाहिज लोग,
अपनी भागीदारी से कोसों दूर थे,
उनके यहाँ आने वाली सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञ लगभग ग्रांट उनके हाथ से निकल चुकी थी,
उन्हें मतलब नहीं किसी दल यानि पार्टियों की कैसी नीतियां हैं
उन्हें तो सिर्फ़ अपने नेता से मतलब भर रहता था,
उनका नेता क्या फरमान निकालता
बस यहीं लोकतंत्र संविधान यानि चुनाव की सटीक समस्या,
आजकल नेता अपनी कूटनीति से सिर्फ़ चुनाव जीतने तक ही सीमित,
बिन रोये माँ भी दूध नहीं पिलाया करती
कबतक मूढमति बने रहोगे,
सरकारें कभी भी एक विशिष्ट व्यक्ति के लिये कानून नहीं बनाती,
फायदे वोट देने वाले और न देने वाले
दोनों को समान रूप से होते है,
घोषणा-पत्र के वायदे सत्ताधारी सरकार को याद दिलाने होते हैं,
वह अजनबी मुसाफ़िर आदमी एक सामाजिक कार्यकर्ता निकला,
जिसकी बातें सुनकर सभी ….*****
लेखक:- डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस