वैश्विक बदलाव में हिंदी की भूमिका
हिंदी दिवस पर विशेष
आलेख
वैश्विक बदलाव में हिंदी की भूमिका
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आज जब हमारे देश भारत का वैश्विक स्तर पर झंडा बुलंद हो रहा है, हाल ही में संपन्न हुए जी-20 के सफल और सार्थक आयोजन ने इस दिशा में एक बार फिर देश का मान सम्मान और बढ़ा दिया है। अब हम आंख से आंख मिला कर दुनिया से बातें करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने विचारों, सिद्धांतों पर सामूहिक सहमति का नया उदाहरण पेश कर रहे हैं।
ऐसे में जैसा कि हम सभी जानते ही होंगे कि 14 सितम्बर,1949 को देश की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाये जाने के साथ ही प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। और 01-14 सितंबर तक हिंदी पखवाड़ा आयोजित किया जाता है।
प्रदत्त विषय वैश्विक बदलाव में हिंदी की भूमिका पर कुछ विचार रखने से पहले हम सबको यह तथ्य भी जानना आवश्यक है।
(डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल शोध के अनुसार हिन्दी का विश्व में पहला स्थान है लेकिन एथ्नोलोग इसे तीसरे स्थान पर दिखाता है ।
विश्व मे भाषा संबंधी आंकड़े परिचालित करने वाली संस्था एथनोलोग ने अपनी 2021 की रिपोर्ट मे अँग्रेजी को प्रथम माना है, तथा इनके बोलने वालों की संख्या (1348 मिलियन) अर्थात 1 अरब चौंतीस करोड़ 8 लाख दर्शाई है तथा मंदारिन को दूसरे स्थान पर रखा है । इसके बोलनेवालों की संख्या (1120 मिलियन ) अर्थात 1 अरब 12 करोड़ बताई है तथा हिन्दी को तीसरे स्थान पर रखा है और इसके बोलनेवालों की संख्या सिर्फ ( 600 मिलियन ) अर्थात 60 करोड़ दर्शाई गई है , जबकि सत्य यह है कि विश्व मे हिन्दी बोलने वाले ( 1356 मिलियन ) अर्थात 1 अरब 35 करोड़ 60 लाख हैं । हिन्दी जाननेवाले , अँग्रेजी जानने वालों से 1 करोड़ 52 लाख अधिक हैं ।
अतः हिन्दी विश्व मे सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है , विश्व भाषाओं की रैंकिंग में पहले स्थान पर है । यह तथ्य वैश्विक हिन्दी शोध संस्थान द्वारा जारी भाषा शोध रिपोर्ट 2021 के अंतिम परिणाम से सिद्ध हो चुका है । अतः हिन्दी निर्विवाद रूप से पहले स्थान पर है । इसे पहले स्थान पर ही दर्शाया जाना चाहिए ।
हिन्दी को तीसरे स्थान पर क्यों दर्शाया जाता है :
हिन्दी को तीसरे स्थान पर दर्शाये जाने के दो कारण हैं , पहला यह कि एथ्नोलोग को हिन्दी मे कोई रुचि नहीं है इसलिए हिन्दी से संबन्धित एक दशक पुराना जनगणना का सरकारी आंकड़ा जिस भी स्रोत से उनके हाथ लगा उन्होने वह ही लिख दिया । किसी भी भारतीय विद्वान ने इस पर आपत्ति नहीं की और न ही भारत की किसी भी संस्था ने एथ्नोलोग को आंकड़े में संशोधन करने को कहा । इसलिए दूसरी भाषाओं को बोलने वालों ने अपनी भाषा के नवीनतम आंकड़े दिये और हमने अपने 11 साल पुराने आंकड़ों को ही स्वीकार कर लिया ।
इस गलत गणना का दूसरा कारण यह है कि दूसरी भाषाओं मे भाषा भाषियों की गणना में थोड़ा सा भी अक्षर ज्ञान होने पर उसे भाषा के जानकारों में गिन लिया जाता है , लेकिन हिन्दी के लिए जान बूझ कर मापदंड अलग ही बना दिया गया है । जिनकी मातृभाषा हिन्दी है सिर्फ उनकी की ही गणना हिन्दी भाषा के जानकारों में की गई । यह भारत की गरिमा को गिरने के लिए सोची समझी चाल है । इसे उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं । पहला उदाहरण अँग्रेजी का ही लें । भारत में अँग्रेजी जानने वाले सिर्फ 6 प्रतिशत हैं अर्थात आठ करोड़ चालीस लाख हैं, लेकिन इसे कहीं कहीं 10 प्रतिशत दिखाया जाता है अर्थात 14 करोड़ । कई जगह तो यह संख्या 20 प्रतिशत दिखाई जाती है अर्थात 28 करोड़ । जबकि सच्चाई यह है भारत मे अँग्रेजी के जानकार 8 करोड़ से थोड़ा अधिक हैं ।)
डा. नौटियाल जी के शोध और निष्कर्ष यह बताने के लिए काफी है कि वैश्विक स्तर पर हिंदी की स्वीकार्यता तो बढ़ी है, लेकिन आज भी हिंदी को उसके वास्तविक मान, सम्मान, और स्थान से दूर रखने का षड्यंत्र लगातार किया जा रहा है। इसमें उन लोगों संस्थाओं, राष्ट्रों की बड़ी भूमिका है, जो स्वयं को खुदा मानते हैं।
अफसोस इस बात का है कि इन कारगुजारियों में हमारे अपने ही कुछ लोग, संस्थाएं, संगठन और हिंदी विरोधी उन्हें सहयोग दे रहे हैं।
यही नहीं बड़ी विडंबना यह भी है कि हिंदी के विकास, बढ़ावा और हिंदी के लिए काम करने वाले लोग, संगठन भी दोहरा मापदंड अपना रहे हैं। वे खुद हिंदी को मुंह चिढ़ा रहे हैं। हिंदी दिवस पर विभिन्न संस्थाओं, संगठनों द्वारा सम्मानित किया जाएगा। उसमें बहुतेरे सम्मान पत्रों में नाम और हस्ताक्षर अंग्रेजी में दिख ही जायेंगे, और जो इस ओर ध्यान दिलाने का प्रयास भी करेगा, वो बेइज्जत भी होगा। उदाहरण के रूप में मैं खुद इसका मुक्तभोगी हूं।
ऐसे में यदि हम वैश्विक बदलाव में हिंदी की भूमिका का महत्व दिखने की चाहत रखते हैं, तो सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए आवाज उठाना होगा। विडंबनाओं से बाहर निकल कर दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा मनाने की स्थिति से शर्म महसूस कीजिए।यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि हम अपनी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दे/दिला सके हैं।
वैश्विक स्तर पर तो हिंदी अपनी भूमिका निभाने ही लगी है, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत है कि हम हिंदी को अपने भीतर स्थापित करें,करनी करनी का अंतर मिटाएं। हिंदी को माँ मानते हैं तो उसके मान सम्मान की सौगंध लेकर समर्पित कदम भी बढ़ाइए, जब तक हम खुद इस दिशा में दोहरा मापदंड अपनाते रहेंगे, तब तक हम किसी को प्रेरित कर पायेंगे, यह महज दिशा स्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि मेरे विचार से……
हिंदी हिंदुस्तान है
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हिंदी हिंद की जान है
हिंदी हमारी पहचान है
हिंदी हमारी शान, मान, सम्मान है।
हमारा गौरव, हमारा स्वाभिमान है
हमारी राजभाषा भी हिंदी ही तो है
बस यही एक टीस है
आजादी के छिहत्तर साल बाद भी
हम सब इसे राष्ट्रभाषा का गौरव नहीं दिला पाये
ये ख्याल शायद हमारे मन में ही नहीं आते।
हमारी सरकारें भी आंखें मूंद कर बैठी हैं
हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा मनाकर
अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर रही हैं
अपनी पीठ थपथपा रही हैं,
और हिंदी के प्रचार प्रसार के साथ
अधिकाधिक प्रयोग की बातें कर रही हैं।
शायद हिंदी के आइने में
खुद को देख नहीं पा रही हैं
और खुशफहमी का शिकार हो रही हैं।
ठीक ही तो कर रही हैं
हिंदी के लिए इतना कुछ तो कर रही हैं
भविष्य की सरकारों के लिए भी
कुछ तो करने के लिए छोड़ रही हैं
इतना एहसान क्या कम रही हैं?
कोई बात नहीं
चलो हम तो मानते हैं न
कि हिंदी हमारी जान है
शायद हिंदी के लिए
इससे बड़ा न कोई सम्मान है
ये ही तो हमारा स्वाभिमान है
हमारी शान, हमारा मान है
हिंदी ही पूरा हिंदुस्तान है।
औपचारिकताओं से आगे बढ़कर जब हम खुद हिंदी के सम्मान को महत्व देंगे, तभी हिंदी भी वैश्विक बदलाव में अपनी अभीष्ट भूमिका का निर्वाह कर सकेगी। अन्यथा हम यूं ही हिंदी दिवस, सप्ताह और पखवाड़ा मनाकर अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे, और हिंदी अपने अभीष्ट की यूं प्रतीक्षा हिंदी दिवस के बीच करती रहेगी।
आलेख/प्रस्तुति
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश