वैज्ञानिक अध्यात्मवाद एवं पूर्ण मनुष्य (Scientific Spiritualism and the Complete Man)
समस्याएं मानव की हों, तो समाधान भी उसी की चेतना में मिलेंगे । यही दार्शनिक सत्य वैदिक चिंतन में पग-पग पर प्रकट हुआ है ।
वैदिक ऋषियों ने अपनी तप से सिद्ध शोध साधना में मानव की समस्याओं पर गहराई से विचार किया है तथा समाधान हेतु वे मानव की चेतना के गहन तलों पर प्रविष्ट हुए हैं । अपने शोध निष्कर्षों में उन्होंने बताया है कि एक ध्रूव सत्य है जो कि ऋत से छिपा है जहां सूर्य अपने अश्वों को विमुक्त करता है, वहां सहस्त्र किरणें एक साथ एकत्र हुई हैं । देवों के अत्यंत ज्योतिर्मय रूपों को भी उन्होंने साक्षात् देखा है ।’ यही नहीं उन्होंने परमदेव की आत्म-शक्ति को अपने ही सचेतन सक्रिय गुणों के द्वारा गहराई में छिपी हुई देखा ।
वैदिक ऋषियों ने जहां मानव चेतना की विशिष्टताओं को जाना, उसकी संभावनाओं को परखा, वहीं उन्होंने यह भी बताया कि मानव चेतना का विस्तार असीम है, बल्कि चेतना का यह सत्य ही सब कुछ है । ऋषि के शब्दों में यह सत्य व अनृत दोनों हुआ । वैदिक ऋषियों के ये निष्कर्ष ही भारतीय दर्शन की विविध परंपराओं में बहुबिध रूप से मुखरित हुए । चार्वाक, बौद्ध, जैन, न्याय, वैशेषिक, सांख्य योग, मीमांसा व वेदांत ऐसी ही समृद्ध परंपराएं हैं । महर्षि दयानंद ने इन्हें अपनी साधना से पुनः नवप्राण दिया । स्वामी विवेकानंद ने इन्हीं भारत की समृद्ध व सनातन विचारधाराओं पर अपने ही निराले ढंग से कार्य किया । इस युग में इन दो महान आत्माओं ने वैदिक निष्कर्षों को प्रचारित करने में अपना भरपूर जोर लगाया । इस युग में विज्ञान भी एक युग सत्य बनकर हमारे सामने आ खड़ा हुआ है । विज्ञान की चमत्कारिक खोजों के कारण मनुष्य अपनी चेतना को ही भुला बैठा है ।
आज मानव अपनी हर समस्या के समाधान हेतु विज्ञान पर निर्भर है लेकिन विज्ञान की स्थिति यह है कि वह जितनी समस्याओं को सुलझाता है उससे कई गुनी समस्याएं हमें दे भी देता है । अतिभौतिक प्रकृति के नियम व संभावनाओं को जाने बिना न तो भौतिक प्रकृति के नियम व न ही संभावनाएं ही जानी जाती हैं । इसी वजह से न तो भौतिक प्रकृति के नियम व न ही संभावनाएं ही जानी जाती हैं । इसी वजह से न तो उसकी सत्य की शोध पूर्ण हो सकी तथा न वैज्ञानिक उपलब्धियां अपनी उपादेयता भली प्रकार से सिद्ध कर सकीं । उल्टे विज्ञान की उपलब्धियों को देखकर प्रसिद्ध दार्शनिक रसल को कहना पड़ा – ‘हम एक ऐसे जीवन प्रवाह के बीच हैं जिसका साधन है – मानवीय दक्षता व साध्य है – मानवीय मूर्खता । लक्ष्य हो, तो उसकी सिद्धि हेतु कुशलता वृद्धि की दिशा में उठाया गया हरेक कदम बुराई की ओर ले जाता है । मानव जाति अब तक जीवित रह सकी है तो अपने अज्ञान व अक्षमता के कारण ही । अगर ज्ञान व क्षमता मूढ़ता के साथ युक्त हो जाए तो उसके बचे रहने की कोई संभावना ही नहीं है । ज्ञान शक्ति है पर यह जितनी अच्छाई हेतु है उतनी ही बुराई हेतु भी है। निष्कर्ष यह है कि जब तक मनुष्य में ज्ञान के साथ-साथ विवेक व होश का भी विकास नहीं होता, ज्ञान की वृद्धि दुःख की वृद्धि ही साबित होगी ।
पुरातन ऋषियों की चिंतन परंपरार व वैज्ञानिक उपलब्धियों के बीच मचे तुमुल द्वन्द्व के समाधान हेतु स्वामी दयानंद व स्वामी विवेकानंद की परंपरा को इस समय पर श्रीराम शर्मा आचार्य ने और भी आगे बढ़ाया है । धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार करके पाखंडों व मूढ़-मांयताओं का विरोध करके वैदिक ऋषियों के स्वर को फिर से मुखरित किया है । इनका व्यक्तित्त्व एक महाक्रांति है । वे ऋषित्व व मनीषा के एकीकृत रूप हैं । इन्होंने धर्म का आच्छादन तोड़ने, दर्शन को बुद्धित्त्व के चक्रव्यूह से निकलने की हिम्मत जुटाई । यहीं नहीं धर्म, दर्शन व विज्ञान के कटु, तिक्त हो चुके संबंधों को अपनी अंतःप्रज्ञा की निर्झरणी से पुनः मधुरता प्रदान की । अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर बताया कि मानव की समस्याओं का यथार्थ व सार्थक समाधान उसकी अपनी स्वयं की चेतना में है ।
मानव चेतना को सही ढंग से जाने बिना विज्ञान को जानना अधूरा ज्ञान है। वह ऐसा ही है कि सारे जगत् में तो प्रकाश हो और अपने ही घर में अंधेरा हो। ऐसे अधूरे व अधकचरे ज्ञान से अपनी ही चेतना को न जानने से जीवन दुःखों में परिणात हो जाता है ।
जीवन शांति, संतुष्टि एवं समृद्धि से पूर्ण हो इस हेतु केवल वस्तुओं को ही जानना पर्याप्त नहीं है । इस तरह से समृद्धि आ सकती है, धन्यता व संतुष्टि नहीं। इस तरह से आप आर्थिक रूप से तो धनवान हो जाओगे लेकिन भीतर से उतने ही कंगाल हो जाओगे । यह स्वयं के हाथों से लगाई फांसी हो जाती है । जो ज्ञान मानव चेतना के ज्ञान से विमुख है वह अधूरा भी है तथा खतरनाक भी । इस अधूरेपन से अनेक दुःख पैदा होते हैं ।
पदार्थ को जानने से व पाने से शक्ति उपलब्ध होती है । विज्ञान उसी की खोज है । विज्ञान से पाई उपलब्धियां आज मानव हेतु वरदान की अपेक्षा अभिशाप अधिक बन गई हैं ।
स्वार्थी व कुटिल नेताओं ने तथा ढोंगी महात्माओं ने इस बीच खूब अपनी दुकानें चमकाकर लोगों को बेवकूफ बनाया है । शक्ति तो हमारे पास है लेकिन शांति नहीं है । शांति पदार्थ को जानने से नहीं अपितु स्वयं को जानने से उपलब्ध होती है । पदार्थ का ज्ञान मानव चेतना के ज्ञान के अभाव में अज्ञान के हाथों में शक्ति देना है । उससे शुभ फलित नहीं हो सकता ।
अब तक विज्ञान व अध्यात्म में जो विरोध रहा है उसका परिणाम अशुभ है। जिन्होंने मात्र विज्ञान की खोज की है वे शक्तिशाली हो गये हैं लेकिन अशांत, दुःखी व संतापग्रस्त हैं । लेकिन जिन्होंने मात्र अध्यात्म का अनुसंधान किया है वे शांत तो हो गये हैं लेकिन लौकिक दृष्टि से अशक्त व दरिद्र हैं । यह सब वैदिक ऋषियों की परंपरा को खंडित करने का दोष है जो अपने देश में बौद्ध प्रभाव से उपजा व पनपा है । जरूरत है स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्रीराम शर्मा आचार्य की तरह सनातन भारतीय जीवन शैली को नवजीवन देने की ।
मनुष्य न तो मात्र शरीर है, न मात्र आत्मा ही । वह तो दोनों का मिश्रण हैं इसलिए उसका जीवन किसी एक पर आधारित हो, तो वह अधूरा हो जाता है । उस अधूरे को पूरा करना ही ऋषियों का कार्य है । वैज्ञानिक अध्यात्मवाद इसी के सार्थक प्रक्रिया है । ‘स्व’ की गहराईयों में उतरे बिना शांति व संतुष्टि असंभव है। अपने चित्त पर पड़े मल व विकार के अंधकार को साधना से दूर करें, इसी में निहित है मानव की सारी समस्याओं के समाधान ।
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)