वेलन्टाइन
वेलेंटाइन पाश्चात्य संस्कृति का द्योतक है। पर अगर इस मूल संस्कृति के जीर्ण-शीर्ण पन्नों को अगर पलटा जाए तो इस तथ्य से हम अवगत होंगे कि उस महान सन्त ने पारस्परिक सौहार्द की वकालत करते हुए कहा था कि प्रेम ये दो शब्द का अर्थ संकीर्ण नहीं बल्कि मूलतः विस्तारित है।
यदि उनके शब्दों पर अगर विचार किया जाए तो पहली बार इस मूल शब्द से तब हम अवगत होते हैं जब माँ की अंगुली को थाम करके जब हम चलना प्रारम्भ करते हैं और हमारे पिता जब हमें बचपन में कंधे पर बिठाकर घूमाते थे ।
प्रेम के दूसरे रूप से तब हम परिचित होते हैं जब पहलीबार हम अपनी जीवन संगिनी को समझते हैं। यहाँ कतई समझने की भूल न करें कि आजकल समाज में जो पनपी हुई कुव्यवस्था है वो प्रेम हो सकती है।
प्रेम समर्पण है न कि आधुनिक समाज में फैली हुई बुराई।
इस को समझाने के लिए मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है जो मेरे पिता ने मुझे कभी सुनाया था-कि एक बार की बात है दो भाई थे जिसमें एक भाई ईश्वर आराधना में निरन्तर लगा रहता था और दूसरा नर्तकी के नृत्यावलोकन में निरन्तर रत रहथा था।
एक बार दोनों भाईयों ने अपनी आदतों की अदलाबदली की जिसके फलस्वरूप पहला भाई नृत्यावलोकन के लिए गया पर उसको वहाँ भी ईश्वर दिख रहे थे और दूसरा जो कभी आराधना नहीं करता था उसे ईश्वर की प्रतिमा में भी नृत्यांगना नजर आ रही थी।
ऐसा इसलिए था कि दोनों का अपने आराध्य के प्रति प्रेम अटल था।
इसलिए माता-पिता की अन्नय भक्ति जो है वो ही प्रेम अटल है बाकि सब मिथ्या है।