वेदों का काव्यात्मक अनुवाद : एक विलक्षण कार्य।
वेदों का काव्यात्मक अनुवाद : एक विलक्षण कार्य।
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यह तो सभी को ज्ञात है कि वेद ही सनातन संस्कृति का आधार है। वेदों की रचना स्वयं ब्रह्मदेव द्वारा की गई है। वेदों की ऋचाओं के सस्वर उच्चारण से अभीष्ट परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन ये सभी वेद मंत्र संस्कृत में लिखे हुए हैं और जन सामान्य को इनका अर्थ समझ में नहीं आता, और जब अर्थ न पता हो तो किस मंत्र का क्या तात्पर्य है , कब किस मंत्र का उच्चारण उपयुक्त है, यह भी नहीं ज्ञान होता।
इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए श्री वीरेन्द्र सिंह राजपूत जी द्वारा चारों वेदों के काव्यात्मक अनुवाद का बीड़ा उठाया गया। काम वास्तव में अत्यंत कठिन था और इसके लिये भगीरथ प्रयास की आवश्यकता थी, किंतु कहते हैं न कि लक्ष्य भले ही असंभव दिखता हो किंतु बिना थके बिना रुके निरंतर कर्म करते रहने से कोई भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
यही बात श्री राजपूत पर भी लागू होती है।
अपने अनथक श्रम से उन्होंने तीन वेदों का काव्यात्मक अनुवाद पूर्ण कर लिया है और उन तीनों वेदों के अनुवाद का प्रकाशन भी हो चुका है। वर्तमान में वह ऋग्वेद के अनुवाद पर कार्यरत हैं।
मुझे उनके द्वारा अनुदित अथर्ववेद के तृतीय भाग के काव्यात्मक अनुवाद का अध्ययन करने का अवसर मिला, जो आर्यावर्त प्रकाशन अमरोहा द्वारा प्रकाशित हुआ है।
सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि उन्होंने अत्यंत सरल भाषा में काव्य रचना की है, जो सुग्राह्य है और सरलता से समझ में आ जाती है। काव्यात्मक अनुवाद को सीमित पंक्तियों में समेटने का प्रयास उनके द्वारा बिल्कुल नहीं किया गया है बल्कि मंत्र में जो भावार्थ निहित है उसको गीत के अंतरों द्वारा सरलता से समझाने का सार्थक प्रयास किया गया है।
कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
सूक्त- यो भूतं च भव्यं सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य न केवलं तस्मै ज्येष्ठांग ब्रह्मणे नमः।
गीत:
नमन उस प्रभु को बारम्बार।
जिस प्रकाश स्वरूप प्रभु को करते सब स्वीकार।।
भूत, भविष्यत्, वर्तमान का जो कि अधिष्ठाता है,
सर्वश्रेष्ठ, अति ही महान, भक्तों की निष्ठा का है,
जिसके भीतर सर्व सुखों का रहता है भण्डार।
मंत्र:
अग्ने चरुर्यज्ञियस्त्वाध्यरुक्षच्छुचिस्तपिष्ठस्तपसा तपैनम्।
आर्षेया दैवा अभिसंगत्य भागमिमं तपिष्ठा ऋतुभिस्तपन्तु।।
काव्यार्थ:
ज्ञान की महिमा अपरम्पार।
यही ज्ञान करता है जग में उन्नति का संचार।।
हैं पवित्र आचरण वाला तपोनिष्ठ एक नर तू,
इस पवित्र ज्ञान को तप से सदा तपाया कर तू,
तत्व ज्ञान से बन जाए तू जैसे हो अंगार।।
ऋषियों में विख्यात श्रेष्ठ गुण वाले बड़े तपस्वी,
ऋतुओं साथ तपा कर इसको, जग में बनें मनस्वी,
इसके द्वारा किया करें वह आलोकित संसार।।
मंत्र
शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा आपश्चरुमव सर्वन्तु शुभ्राः।
अदुः प्रजां बहुमान्यशून्नः पक्तौदनस्य सुकृतामेतु लोकम्।।
शुद्ध औ पवित्र, सच्चरित्र, पूज्य, सेवा योग्य,
विद्यालिप्त स्त्रियां ये प्राप्त करें ज्ञान को,
इससे सदैव ये प्रदान करती ही रहें,
नाना उत्तम पशु व योग्य संतान को,
सुख बरसाने वाले मेघरूप प्रभु को जो,
करके सुदृढ़ करता है रसपान को,
वह प्राणी क्षानवान शुभ कर्मियों के बीच,
लेता स्थान, लगता है सम्मान को।।
उपरोक्त तीनों उदाहरणों में कवि ने मंत्र का काव्यात्मक अनुवाद विस्तार के साथ भावार्थ को पूर्णतः स्पष्ट करते हुए किया है, भले ही 8 पंक्तियों के छंद में व्यक्त किया हो अथवा दो अंतरे वाले गीत में।
किसी भी विषयवस्तु का अनुवाद करते समय यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि अनुदित काव्य सरस, और सरल हो, और विषयवस्तु का भावार्थ स्पष्टता के साथ उसमें व्यक्त हो जाये। यदि भावार्थ स्पष्ट नहीं होगा तो अनुवाद परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। श्री राजपूत जी ने इस तथ्य का पूरा ध्यान रखा है।
कुल मिला कर उनके द्वारा रचित वेदों का यह काव्यात्मक अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ होगा जो जन सामान्य को वेदों के कथ्य को जानने व समझने में सहायक होगा।
इस महती कार्य को निष्पादित करने के लिये वह निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
20.09.2024