* वेदना का अभिलेखन : आपदा या अवसर *
* डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त *
* वेदना का अभिलेखन : आपदा या अवसर * एक विचार एक चर्चा – भाग 1
वेदना तो स्वभाविक सार्वभौम है ये न जाएगी, होनी ही है, ये सुनिश्चित है । इस से बचना ना मुमकिन । तब मनुष्य या जीव क्या करे , कोई उपाय, कोई बचाव का रास्ता या ऐसा तरीका कि वेदना का दंश कम से कम तकलीफ़ दे । बहुत ही हास्यास्पद स्थिति हो जाती है, मनुष्य की, क्यूँ, की सम्पूर्ण जगत में उसका ही विकास सबसे अधिक है , तो वेदना भी उसको ही सबसे अधिक झेलनी होती है, मात्र एक छोटा सा कंटक भी उसको कई कई दिन दूखता रहता है । कोई उपाय नहीं , उसके स्नायु तंत्र जितने विकसित उतने ही संवेदन शील ।
समय ही उसका निवारण कर सकता है , आजकल तो फिर भी बहुत से तरीके हैं संज्ञा हरण, उनमें से प्रमुख संज्ञा हरण पूर्ण या आंशिक , दोनों तरह के । – लेकिन ये समाप्त हो जाये , शरीर की वेदना ! तो मन की वेदना का क्या करोगे । विचार तो रुक न पाएँगे न । कभी किसी प्रिय का कष्ट कभी किसी सगे संबंधी के दुख , कभी स्वयं की असमर्थता , विवशता , खिन्नता , कभी सफलता के कारण कभी असफलता के कारण । कभी विरह की अग्नि कभी जबरदस्ती किसी का आप पर लदे रहना , होता है न , तो मन की पीड़ा से कैसे बचोगे ।
कहने का तात्पर्य ये हुआ की वेदना आपके माँ के गर्भ में प्रवेश लेने से लेकर – अंतिम साँस तक अंग संग – लगी रहेगी । आपकी आधी क्षमता , ऊर्जा , ताकत , को खाती हुई आपको निस्तेज कर देगी । मैंने सुना है , यदि मनुष्य को ये वेदना , पीड़ा , दुख जैसे संताप न सताएँ तो मनुष्य भगवान से भी ऊपर निकल जाये , लेकिन भगवान क्या ऐसा होने देते , कदापि नहीं , इसी कारण से उनका अस्तित्व है , वर्चस्व है , स्थाई प्रभुत्व है , ऐसे पद पर कोई क्यूँ , किसी दूसरे को आने देगा , हैं न
शेष अगले अंक में , भाग 2 – जारी है