वृद्धाश्रम
गत दिनों मैं एक वृद्धाश्रम पहुंची,
मां की बरसी थी।
सोचा, मिल आती हूं कुछ बुजुर्गों से,
कुछ तो दिखते होंगे
मेरी मां जैसे
मुख्यद्वार पर ही ‘हाउसफुल’ लिखा था।
अंदर पहुंची तो मेरा गुरुकुल याद आया,
खूब हरी भरी वृद्ध पेड़ों की छाया।
मानो पेड़ों का भी वह वृद्धाश्रम था।
बस फर्क सिर्फ इतना था
पेड़ हवा में झूम रहे थे और
वृद्ध आस में गुमसुम से थे।
अंदर का नजारा देखा,
छात्रावास के दिन याद आए।
पर एक विलक्षण फर्क नजर आया
वहां सबकुछ बेफिक्र फैला होता
मानो जीवन की आकांक्षाए खुल रही हो।
यहां सबकुछ साफ-सूथरा, समेटा
मानो कहीं सफर की तैयारी चल रही हो।
कुछ वक्त उनके साथ बिताया,
सबसे कुछ बातें भी की।
कहीं पर दो आंसू छलके,
तो कहीं पर ठहाके गूंजे।
मन कुछ हलका हुआ,
मेरा भी और शायद, उनका भी।
कुछ दादियां कहने लगी
अच्छा ही हुआ, वृद्धाश्रम में आकर
मन की मूराद बच्चों ने पूरी कर दी।
बड़ी ही इच्छा थी मन में कभी ,
होस्टल का जीवन जीने की।
उन दिनों समाज की बेड़ीयां जो थी।
कुछ ने कहा, अच्छा ही हुआं
यहां आकर कुछ नये दोस्त मिले।
कुछ हम उम्र और कुछ हम दर्द भी मिले।
वक्त कटता है, सुख-दुख बंटता हैं।
घर के माहौल से बेहतर,
यहां पर दिल तो लगता है।
हां, घर की याद तो आती हैं
पर जीवन में सबको सबकुछ,
कहां मिलता है।
कुछ की तो थी मजबूरी,
कुछ का कोई न था ।
मगर कुछ का तो था सबकुछ
धन, नाते, घर, रिश्ते।
बस शायद कहीं कुछ कम था ।
या शायद, कुछ ज्यादा था ।
शायद कसूर विश्वास या प्यार का था।
कुछ अपेक्षाएं या कुछ व्यवहार का था।
कुछ एक बातें सब में एक-सी थी।
एक उम्मीद का एहसास,
और आंखों में असीम प्रतिक्षा थी।
कुछ खोने का ग़म और
हर शाम की विवीक्ता थी।
कुछ मीठी यादों का काफिला था,
एक छोटे से बक्से में समेटा,
जीवन का घोंसला था।
कोई पुराना खत, पासपोर्ट फोटो,
तो कहीं नन्ही गुड़िया का रबर बैंड था।
लौटा, तो मन भारी था।
आंखों में नमी थी ।
ज़हन में एक सवाल था।
आजकल वृद्धाश्रम बढ़ने लगे हैं,
क्या नये जमाने में मां-बाप,
बच्चों को, बोझ लगने लगें है?
दीपाली कालरा