वृद्धजन – एक मिसाल
“तोरा मन दर्पण कहलाए ,,”
की स्वर लहरियां ढोलक की थाप के साथ कानों में अमृत घोल रही थी ।
मैं सुबह घुमने निकला था ।
घर से दस मकान दूर नौकरी के दौरान हमारे कार्यालय के बड़े बाबू तिवारी जी रहते थे । उन्हीं के घर से यह आवाज आ रही और वह भी तिवारी जी की थी ।
मुझे आश्चर्य हुआ अपनी नौकरी के समय उनकी पहचान कड़क बड़े बाबू के रूप में थी । कड़ा अनुशासन , समय की पाबंदी , हर काम समय पर करवाना उनके काम में शामिल था । इसी कारण आफिस का सब काम समय से होता था ।
लेकिन इससे उनकी पहचान खडूस बड़े बाबू की हो गयी थी । कोई उनके सामने नहीं आता था । पिछले महिने ही वह सेवानिवृत्त हुए थे । उनकी कड़क स्वाभाव के कारण , उनकी सेवानिवृत्ति के बाद भी कोई उनके घर नहीं जाता था ।
लेकिन इतने मधुर गाने के बाद मैं अपने को नहीं रोक सका और उनके घर पहुँच गया । दरवाजा खुला था और तिवारी जी ढोलक बजाते हूंगा रहे थे , मुझे देखते ही उन्होंने गाना रोक दिया और मुझे अंदर बैठाया फिर थर्मास में से चाय निकाल कर दी ।
मैंने जब आश्चर्य से उनकी तरफ देखा तब वह बोले :
” देखो नौकरी के दौरान मैं आफिस में एक नियंत्रक के रूप में था ईमानदारी से अपनी ड्यूटी करना और करवाना मेरी पहली जिम्मेदारी थी इसलिए उस दौरान मैं कडाई से रहता और काम करवाता था लेकिन मैं किसी के लिए दुर्भावना नही रखता था , अब सेवानिवृत्ति के बाद सभी के लिए द्वार खुले हैं ।”
तिवारी जी बात मुझे अच्छी लग रहीं थी फिर ढोलक की तरफ देखते हुए पूछा :
” लेकिन यह ढोलक आपने कब और कैसे सीखी ।”
तब वह हँसते हुए बोले :
” आजकल इन्टरनेट के जमाने में कुछ भी कठिन नहीं है , मैंने इसी से इसे सीखा और अब हारमोनियम भी सीख रहा हूँ ।”
सेवानिवृत्तिके बाद भी इतने जिन्दादिल इन्सान से मिल कर मेरी उनके प्रति धारणाएं बदल गयीं थी और एक नये सिध्दांतों और मजबूत इरादों के तिवारी जी को प्रणाम कर मैं घर के लिए चल दिया था।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल