वृक्ष
वृक्ष से सुन्दर कविता
भला और क्या होगी?
धरती के सीने पर मूक दर्शक
से खड़े ये वृक्ष ,
न किसी से शिकवा न शिकायत
बस निरंतर देने की प्रक्रिया में खड़े ,
कभी छाया, कभी फल, कभी फूल
और कभी पत्तों का बिछौना।
कभी तो किसी ऋषि,
तपस्वी की भांति,
तपस्या में रत से लगते,
दिन,रात मौन समाधि में खड़े ये वृक्ष,
कभी आंधी, तूफ़ान ही
इनका मौन भंग कर पाते,
तब भी ये दृढ़ता के प्रतीक,
सब कुछ सह जाते हैं, हँसते हँसते
शाखाएँ इनकी जैसे बाहें फैलाये,
खड़ा हो कोई तपस्वी,
ईश्वर की आराधना में लीन।
बसंत में इनका सौंदर्य
देखते ही बनता,
नई नई लाल पत्तियाँ जैसे
इनको दुशाला ओढ़ाती
फिर धीरे धीरे ये सब्ज
परिधान पहन मुस्कुराते,
फिर इन पर फूलों का आना,
यौवन का आभास कराता
फिर इन पर फल आकर,
सम्पूर्णता का अहसास कराते
फल भी इनके परोपकार
का कारण बनते,
वृक्ष एक निर्लेप,निर्विकारी का
जीवन जीते।
फिर पतझड़ में पुराने पत्ते झड़ जाते,
मानों अपने पुरातन वस्त्र
उतार फेंके हों
धरती पर पत्ते यों लगते,
जैसे पीली चादर का बिछौना
धरा पतझड़ में पीले रंग से नहा उठती,
पतझड़ में पत्तों का झड़ जाना
सन्देश है जीवन का,
जैसे आत्मा का एक देह त्यागकर,
नवीन देह धारण करना
वृक्ष सृष्टि चक्र का प्रतिनिधित्व करते,
पुरातन त्यागकर नवीनता धारण
करना ही सन्देश सृष्टि का,
वृक्ष से सुन्दर कविता
भला और क्या होगी…..!
— ©️कंचन”अद्वैता”