वीरगाथा अवंतीबाई
अदम्य साहस और वीरता की प्रतिमूर्ति वीरांगना महारानी अवन्ति बाई के बलिदान दिवस पर शत शत नमन ।
महारानी अवन्तीबाई की बलिदानगाथा
बलिदान दिवस- 20 मार्च 1858
जन्म 16 अगस्त 1831
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों से लोहा लेकर, डटकर करी लड़ाई थी।।
मनकेड़ी सिवनी जिला में, जन्म हुआ था रानी का।
पिता जुझारसिंह थे इनके, इनका न कोई सानी था।।
गोला भाला तीर चलाना, बचपन में ही सीख लिया।
संग पिता के जाकर जंगल, शेरों का ‘शिकार किया।।
सोलह बरस की उम्र में राजा, विक्रमदित्य से ब्याह हुआ।
रामगढ़ जो मंडला जिले का, रानी का ससुराल हुआ।।
जन्म दिया था दो बच्चों को, अपनी कोख से रानी ने।
सींची ममता अरु करूणा भी, रानी जी की वाणी ने।।
रानी की वाणी के भीतर, दया प्रेम करूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों की कुटिल चाल से, राजा जब विक्षिप्त हुये।
शीघ्र राज्य में लाकरके तब, तहसीलदार नियुक्त किये।।
शोक गहन ये सह न पाये, राजा फिर बीमार हुये।
छोड़ गये माया नगरी को, असमय स्वर्ग सिधार गये।।
रानी ने साहस का परिचय, देकर राज्य सम्हाल लिया।
प्रजाजनों के बीच में जाकर, दयाभाव संचार किया।।
तभी क्रूर अंग्रेजों ने फिर, राज्य पे धावा बोल दिया।
रानी ने तलवार खींच ली, और मोर्चा खोल दिया।।
कफन बांधकर सिर पर निकली, रानी न सकुचाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
शंकर शाह मंडला शासक का, बेटा था, रघुनाथ शाह।
पिता पुत्र को बांध तोप से, अंग्रेजों ने किया तबाह।।
रानी ने फिर बिगुल बजा दी, गुप्त संदेशा दिया भिजाय।
चूड़ी कंगन बिंदी माला, जमीदारो को दी पंहुचाय।।
रक्षा करलो देश की या तो, या चूड़ी पहनों घर जाय।
पौरूष जागा जमीदारों का, सेना अपनी लिया सजाय।।
तट पर फिर खरमेर नदी के, अंग्रेजों से युध्द हुआ।
जीत मिलेगी रणकौशल से, रानी के ये सिद्ध हुआ।।
छापामार युध्द में माहिर, नीति जो अपनाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अठ्ठारह सौ सनतावन सन, की ही ये जो बात थी।
राजमहल को छोड़ के निकली, धरी खड्ग ले हाथ थी।।
सम्मुख खड़ी सेना अंग्रेजी, रानी ने हुंकार भरी।
रणबांकुरी जंग में कूदी, जग ने जयजयकार करी।।
रणचण्डी का रूप धरी और, सिर अंग्रेजों का काटी।
पुण्यभूमि भारतभूमि की, धन्य हुई थी फिर माटी।।
तलवार चमकती थी चमचम, बिजली सा परचम लहराती।
काट काट कर सिर दुश्मन का, दुनिया को वो समझाती।।
कांपे दुश्मन थर थर थर थर, सोचे अंत बिदाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
एक हाथ में बंदूक लेकर, एक हाथ में लिये लगाम।
चढ घोड़े पर वार कर रही, दुश्मन छोड़े प्राण तमाम।।
सनसनसन गोली की चींखे, अंग्रेजों के कांपे प्राण।
दन दन दन बंदूकें चलती, पल पल पल लेती थी जान।।
अंग्रेजी सेना चक्कर खा गई, रण कौशल रानी का देख।
धड़ से सिर फिर गिरे धड़ाधड़, करो कल्पना पढ़ो जो लेख।।
अंग्रेजों के पांव के नीचे, की धरती फिर फिसल गई।
रानी लड़ी छत्राणी जैसे, और दुश्मन की बलि दई।।
अंग्रेजों की हवा निकल गयी, ऐसी चोट लगाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
दूर फिरंगी हो जाना तुम, तेरी अब तो खैर नहीं।
छोड़ धरा मेरी तू छोड़ अब, लेना हमसे बैर नहीं।।
वाडिंगटन के घोड़े को, रानी ने मार गिराया था।
हाथ जोड़कर प्राण की रक्षा, के खातिर रिरियाया था।।
उस गोरे कप्तान को फिर, रानी ने जीवनदान दिया।
साथ में उसके बेटे को भी, जबलपुर प्रस्थान किया।
रामगढ़ से मंडला तक रानी, ने गढ़ का विस्तार किया।।
शाहपुर, बिछिया व घोघरी, की सीमा को पार किया।।
निज धरती, अभिमान, शान, सम्मान की जोत जलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
खाकर मुंह की इक नारी से, वाडिंगटन हैरान हुआ।
बारह मास के अंदर में फिर, सेना ले प्रस्थान हुआ।।
बड़ी भयंकर हुयी लड़ाई, दोनों ओर से जान गयी।
चारों ओर से घिर आई थी, रानी तत्क्षण जान गई।।
दुर्ग को चारों ओरों से जब, अंग्रेजों ने घेर लिया।
गुप्त मार्ग से रानी जी ने, सेना का मुख फेर दिया।।
सेना के संग रानी ने तब, जंगल ओर पड़ाव किया।
पीछे पीछे वाडिंगटन की, सेना ने घेराव किया।।
रानी दुर्गावती के जैसे ही, लड़कर दिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
घर के ही गद्दारों ने जब, अंग्रेजो का साथ दिया।
भेद बताकर रानीजी का, रानी को ही मात दिया।।
न्यौता आत्मसर्मपण का फिर, वाडिंगटन ने भिजवाया।
मरने की बातें लड़कर ही, रानी के मुख से आया।।
ये! वाडिंगटन तेरे जैसा, रानी के रगो में खून नहीं।
जीवनदान दिया था तुझको, क्या तुझको मालूम नहीं।।
केप्टन वाडिंगटन लेफ्टीनेंट,वार्टन और थे काकवार्न।
सेना संग नरेश की रीवा, मिलकर करने लगी प्रहार।।
रानी संग मुठ्ठी भर सेना, मुश्किल में घिर आई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
बायें हाथ लगी गोली तो, हाथ से बंदूक छूट गयी।
उमरावसिंह लोधी से बोली, आस जीत की टूट गयी।।
जान फिरंगी के हाथों के भय से खंजर खीच लिया।
निज हाथों से ही मरकर, धरती को लहू से सींच दिया।।
जान हथेली पर लेकरके, हुई शहीद बलिदानी थी।
मिट गई मातृभूमि के खातिर, आजादी जो लानी थी।।
गोद में भारतमां की गिरकर, चिर निद्रा में सो गयी।
यूं तो मरना था इक दिन पर, अमर वो मरकर हो गयी।।
जिस माटी में जन्म लिया, उस पर मिटना सिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
नाम अमर कर गई वंश का, गढ़ मंडला की रानी थी।
न्यौछावर कर प्राण देश पर, सम्बल जिसकी वाणी थी।।
जनम जनम तक याद रखेगें, रानी के बलिदान को।
देशभक्ति का पाठ पढ़याा, देकर अपने प्राण को।।
इस बलिदान की गाथा को हर, भारत वासी याद करे।
विरांगना फिर जनमें ऐसी, ईश्वर से फरियाद करे।।
सुनकर रानी की गाथा को, आंखें जिनकी नहीं सजल।
‘सरल’ गरल लेकर है कहता, उन्हे पिला दो आज गरल।।
धरती रोई, अंबर रोया, रोई सब तरूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
-साहेबलाल दशरिये “सरल”