वीणावादिनि वर दे।
शब्द शब्द अक्षर अक्षर में,
सार समाहित कर दे।
जन के मन की पीर लिखूँ माँ,
वीणावादिनि वर दे।।
सच को सच कहने से माते,
वर दे कभी न हारूँ।
जिस जय में सिद्धांत बेचने,
पड़ें हार स्वीकारूँ।
दंभ कपट छल द्वेष रहित माँ,
शुद्ध चित्त अंतर दे।
जन के मन की पीर लिखूँ माँ,
वीणावादिनि वर दे।।
दूर-दूर तक भी जग में माँ,
नफरत की गंध न हो।
संबंधों में रक्त का प्यासा,
कोई संबंध न हो।
हर हिरदय में कर्म के प्रति तू,
भक्ति भावना भर दे।
जन के मन की पीर लिखूँ माँ,
वीणावादिनि वर दे।।
बनी रहे माँ शांति राष्ट्र में,
जीवित यह प्रीत रहे।
लोकतंत्र में जन गण मन का,
गुंजित माँ गीत रहे।।
चुभे न कोई किसी वक्ष में,
हर प्रश्न का उत्तर दे।
जन के मन की पीर लिखूँ माँ,
वीणावादिनि वर दे।।
प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर, सम्भल(उ०प्र०)