विवाह
एंथ्रोपोलोजिस्ट (Anthropologishts )के अनुसार, जब हम जंगल में थे, विवाह नहीं था , स्त्री पुरुष तीन वर्ष तक एक साथ रहते थे, फिर अपनी अपनी राह पर चल देते थे , क्योंकि तब एक बच्चे के पालन पोषण के लिए स्त्री को जितने समय के सहयोग की आवश्यकता होती थी, वह समय इतना ही था ।
फिर कृषि का आरम्भ हुआ, और हम जो समाज आज देखते हैं, उसके बीज पड़ने आरम्भ हुए। मनुष्य आर्थिक स्वतंत्रता की बात सोचने लगा, ज़मीन पर अधिकार का भाव जाग उठा, युद्ध, सेना, शोर्य , मेरा , तेरा , यह केंद्र में आ गए और मनुष्य अपनी जीवन पद्धति इन नई आवश्यकताओं के अनुसार गढ़ने लगा । विवाह भी इस पद्धति का भाग बनने लगा, अब प्रेम या शारीरिक आकर्षण नहीं , अपितु रीति रिवाज मुख्य हो उठे। धन और उसका बँटवारा इसका विशेष भाग हो उठा। धीरे-धीरे युद्धों के आसपास महाकाव्य लिखे जाने लगे, क्योंकि स्त्री का समय तथा ऊर्जा बच्चों की देखरेख में जा रहा थी , बाहरी जीवन में हो रहे परिवर्तनों में उसका हस्तक्षेप घटने लगा, और शायद कुछ ही पीढ़ियों में उसका स्थान दासी का हो उठा, मातृत्व, प्रेमिका, मित्रता, मंत्रणा, यह सब गुण , मुख्यतः कविता और दर्शन के विषय हो उठे, वास्तविक जीवन में उसकी स्वतंत्रता कम होती गई और कुंठाओं का विकास होता गया ।
सिंधु घाटी सभ्यता, जिसकी लिपि अभी तक पुरातत्ववेत्ता नहीं पढ़ पाए , वहाँ बहुत खिलौने मिले हैं , अनुमान है कि वह मातृ प्रधान सभ्यता थी , और इसलिए शांतिप्रिय सभ्यता थी । यही बात हम एकियन के आने से पूर्व ग्रीस की सभ्यता के बारे में भी कह सकते हैं, वहाँ पर भी लीनियर ऐ , उनकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
कहने का अर्थ है , जहां प्रभुत्व की अकांक्षा होगी, वहाँ युद्ध होगा, जहां आर्थिक विस्तार की बात होगी वहाँ लालच होगी, और स्त्री पुरुष के संबंध इससे पूर्णतः प्रभावित होंगे । विश्व भर में विवाह यानि हमारा पारिवारिक ढाँचा, हमारी धारणायें इससे प्रभावित हुई हैं । स्त्री कहीं भी स्वतंत्र नहीं थी, वह पिता, पति , और पुत्र के अधीन रहकर ही अपना जीवन यापन कर सकती थी । विश्व भर का साहित्य ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है ।
जब परिवार विवाह निश्चित करता है तो वह उसके लिए कुछ पैमाने तैयार करता है , उदाहरणतः, आयु , संपत्ति, संपर्क, पारिवारिक झगड़े, आदि । इसमें न तो पुरूष स्वतंत्र है, न स्त्री, मनुष्य से शक्तिशाली हैं समाज के नियम, जिसमें स्वतंत्र चिंतन का कोई स्थान नहीं है, मूल्यवान हैं तो अंधविश्वास, परंपरायें । हमारे परिवारों की नींव यदि इतनी दूषित है तो हम सुखी समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते, उसके निर्माण का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब औरतें पश्चिम में घर से बाहर आ काम करने लगी तो उन्होंने पहली बार आर्थिक स्वतंत्रता को समझा, और स्त्री पुरुष के क़द के बराबर होने के प्रयत्न की शुरुआत हुई । उसकी शिक्षा, उसका स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है, इसकी चर्चा आरम्भ हुई और एक तरह से विवाह के लिए प्रेम आवश्यक है, यह विचार पनपने लगा । और यह विचार भारत में भी धीरे-धीरे आता रहा, हमारी फ़िल्में इस तरह की स्वतंत्रता की कोशिशों से भरी पड़ी हैं । कुछ वर्ष पूर्व तक हमें इस विषय में ही अटके पड़े थे , आज भी हमारे कवि सम्मेलन इसी बात को दोहराये जा रहे है । यह समस्या कितनी कष्टप्रद है , यह उसाी से पता चल जाता है, यह सत्य हमारी सारी रचनात्मकता को खा रहा है ।
हम अपने बच्चों को दुनिया भर का ज्ञान देने का प्रयास करते हैं परंतु वैवाहिक जीवन की वास्तविकता से उन्हें अंजान रखते है, यह उनकी अपनी योग्यता पर छोड़ देते है , यही कारण है कि वैवाहिक जीवन का आरम्भ प्रायः कठिनाइयों से भरा होता है , और युवाओं को थका देता है । उन्हें अपने जीवन को सहज तरीक़े से नहीं जीना होता , अपितु एक तरह से दिये हुए चरित्र को जीवन भर निभाना होता है ।
अब कुछ लोगों का यह विचार है कि यह नियम क़ानून समाज को बाँधे रखते हैं , तो मैं यह जानना चाहती हूँ , तो क्या बंधन ही सब कुछ है ? बलात्कार, जायदाद के झगड़े , यहाँ तक कि युद्ध, क्या इसलिए नहीं होते क्योंकि हमारे पारिवारिक जीवन व्यथा से भरे हैं, और इसके मूल में है , विवाह, जहां प्रेम के सहज विकास की संभावना कम है । हमारे यहाँ व्यक्ति से नहीं परिवार से होता है , जो बिल्कुल अस्वाभाविक है ।
विवाह में प्रेम पहली आवश्यकता है, यदि प्रेम है तो सब सहज है , सम्मान है , प्रगति है । हमें चाहिए, हम अपने बच्चों को बतायें कि विवाह का अर्थ होता है, एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना , अगली पीढ़ी को तैयार करना, सामाजिक और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाना , धन अर्जित करना और उसे संभालना । हमें अपनी परवरिश में इतना भरोसा होना चाहिए कि हमारे बच्चे इन प्रतिमानों पर खरे उतरेंगे । प्रेम विवाह ही दहेज, जाति प्रथा जैसी कुरीतियाँ दूर कर सकता है। यह विकसित मनुष्यों का परिवार होगा । घर के झगड़े और नफ़रतें ही महायुद्धों का रूप ले लेते हैं ।
शशि महाजन
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