विरोध-रस की काव्य-कृति ‘वक्त के तेवर’ +रमेशराज
स्थायी भाव ‘आक्रोश’ से युक्त ‘विरोध-रस’ का उद्बोधन कराने वाली सुप्रसिद्ध तेवरीकार ज्ञानेन्द्रसाज की कृति ‘वक्त के तेवर’ चुनी हुई 64 तेवरियों का ऐसा संग्रह है जिसका रसास्वादन पाठकों में स्थायी भाव ‘आक्रोश’ और ‘असंतोष’ जागृत कर ‘विरोध और विद्रोह’ के रसात्मक बोध में ले जाता है। विरोध और विद्रोह की यह रसात्मकता ‘आलंबन विभाव’ के रूप में वर्तमान व्यवस्था के उपस्थित होने तथा ‘उद्दीपन विभाव’ के रूप में इसी व्यवस्था के विद्रूप अर्थात् घिनौने आचरण के कारण रस-रूप में जन्म लेती है।
‘वक्त के तेवर’ तेवरी-संकलन की तेवरियां ऐसे रस-मर्मज्ञों के बीच अवश्य ही असफल सिद्ध होंगी, जो अधूरी और अवैज्ञानिक रस-परम्परा से चिपके हुए हैं। रस के ऐसे पंडितों को तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज़ का यह प्रयास बालू से तेल निकालने के समान भले ही लगे लेकिन जो सहृदय विद्वान रसानुभूति को विचार की सत्ता से जोड़कर सोचने-समझने की सामर्थ्य रखते हैं, उन्हें यह तेवरियां हर प्रकार आश्वस्त और रस-सिक्त करेंगी।
तेवरीकार आक्रोशित इसलिए है-
गर्दिशों में सवेरे हैं क्या कीजिए
हर जगह गम के डेरे हैं क्या कीजिए?
आप दामन बचायेंगे किस-किस जगह
हर गली में लुटेरे हैं क्या कीजिए?
तेवरीकार अपने भीतर के आक्रोश, विरोध, असंतोष और विद्रोह को इस प्रकार प्रगट करता है-
अपनी तो समझ में ये बात नहीं आयी
ये कौम के रहबर हैं या देश के कसाई।
अथवा
बदले हुए हैं वक्त के तेवर
घूमता आक्रोश सड़कों पर।
इनको न होगा किसी का डर
रख देंगे तोड़कर ये शीशाघर।
तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज ने ‘वक़्त के तेवर’ तेवरी-संग्रह की भूमिका एक सार्थक सवाल के साथ आरम्भ की है-‘‘मैंने सदैव ग़ज़ल और तेवरी में अन्तर महसूस किया है। यह अलग बात है कि ग़ज़ल के तथाकथित दिग्गजों के हलक में यह बात नहीं उतरती। शायद इसीलिये यह मुद्दा विवादास्पद बना हुआ है। ये लोग सहमति या असहमति के किसी भी रूप में अपना मुंह नहीं खोलना चाहते।’’
साज़जी का उपरोक्त कथन एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो ग़ज़ल और तेवरी के उस विवाद की ओर संकेत करता है, जिसको सुलझाये बिना कथित हिन्दीग़ज़ल के पक्षधर तेवरी को खारिज कर या तो उसे हिन्दीग़ज़ल घोषित करते हैं या हिन्दीग़ज़ल का एक अशास्त्रीय ढांचा बताते हैं। तेवरी के वैज्ञानिक स्वरूप पर कथित हिन्दीग़ज़ल के पंडित इसलिये चर्चा करना नहीं चाहते हैं क्योंकि इससे उनकी हिन्दी ग़ज़ल का सारा का सारा स्वरूप विखण्डित हो जायेगा। इसी कारण ऐसे लोग बिना किसी बहस के ‘हिन्दी ग़ज़ल… हिन्दी ग़ज़ल’ का हो-हल्ला मचाये हुए हैं।
ग़ज़ल की स्थापना ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’ के संदर्भ में की गयी। इसकी सामान्यतः दो विशेषताओं रदीफ तथा काफिया को लेकर हिन्दी में हिन्दीग़ज़ल का एक निष्प्राण स्वरूप खड़ा किया गया, बिना यह सोचे-समझे कि जब किसी वस्तु का चरित्र बदल जाता है तो वह वस्तु अपने नाम की सार्थकता को खो देती है। यही नहीं उसके शिल्प में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है।
हिन्दी ग़ज़ल… हिन्दी ग़ज़ल… का होहल्ला मचाने वाले और इसे प्रलयंकारी मशाल बताने वाले हिन्दीग़ज़लकारों के मन में पता नहीं कब यह बात बैठैगी कि कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और रानी लक्ष्मीबाई में जमीन-आसमान का अन्तर है। यदि कोई चम्पाबाई अपनी भोगविलास की वृत्ति को त्यागकर रानी लक्ष्मीबाई की तरह इस घिनौनी व्यवस्था से टकराने के लिये हाथों में तलवार लेकर खड़ी है तो उसे रानी लक्ष्मीबाई कहकर पुकारने में इन्हें शर्म क्यों महसूस होती है।
ग़ज़ल और तेवरी में भेद न करने वाले ऐसे हिन्दीग़ज़ल के पक्षधरों को यह भी सोचना चाहिए-
जल उसी स्तर तक जल की सार्थकता ग्रहण किये रहता है जबकि वह हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है। यदि कोई व्यक्ति उसमें साइनाइड मिला दे तो ज़हर बन जाता है। यही जल एल्कोहल के साथ खराब पुकारा जाता है।
मोमबत्ती, दीपक और बल्ब अंधकार को प्रकाशवान बनाते हैं लेकिन हम इनका एक ही तरीके से आकलन नहीं कर सकते।
फांसी देकर हत्या करने वाले को जल्लाद, घात लगाकर हत्या करने वाले को शिकारी या आखेटक, गोश्त का व्यापार करने हेतु हत्या करने वाले को कसाई कहा जाता है। हत्या करने वालों का यह वर्गीकरण उनके गुणधर्मों पर आधारित है।
वायुयान के चालक को ‘पाॅयलट’ और बस के चालक को ‘ड्राइवर’ कहना उनकी चारित्रिक पहचान कायम करना है।
लेकिन जिन लोगों को इस चारित्रिक-महत्ता या अर्थवत्ता की पहचान नहीं है या इस चारित्रिक बहस से दूर भागते हैं, उन्हें तेवरी और ग़ज़ल के चरित्र में कोई फर्क नज़र आयेगा या कभी इस बहस में शरीक होकर इसे प्रासंगिक बनाने का प्रयास करेंगे, ऐसी उम्मीद रखना इन लोगों के समक्ष बेमानी ही रहेगी। इसीलिए ज्ञानेन्द्र साज का ‘वक्त के तेवर’ संकलन में उठाया गया बहस का यह मुद्दा कि ‘मैंने ग़ज़ल और तेवरी में सदैव अंतर महसूस किया है’, बहस के केंद्र-बिन्दु में ऐसे कथित ग़ज़ल के पंडितों के बीच कोई खलबली नहीं मचायेगा जो हिन्दीग़ज़ल की स्थापना में बिना किसी तर्क का सहारा लिये जुटे हैं।
हिन्दी ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशाल, आम आदमी के दुखदर्दों की संजीवन बूटी बताने वाले कथित यथार्थ-आग्रही हिन्दी ग़ज़लकारों को सच बात तो यह है कि इन्हें न तो ग़ज़ल लिखने की तमीज है और न तेवरी की।
ऐसे विद्वान ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशाल बताने के बाबजूद उसमें जनधर्मी चिन्तन को प्रेमिका से आलिंगनबद्ध होते हुए भर रहे हैं | इनके ग़ज़ल-कर्म में प्रेमिका को बांहों में भरने का जोश और कुब्यव्स्था से उत्पन्न आक्रोश का अर्थ एक ही मालूम पड़ता है |
तेवरी की स्थापना जिन मूल्यों को लेकर की गयी, वह मूल्य ग़ज़ल के चरित्र को न पहले ग्रहण करते थे और न अब करते हैं। तेवरी हमारे रागात्मक सम्बन्धों की सत्योन्मुखी प्रस्तुति है। तेवरी आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह का एक ऐसा स्वर है जो हर प्रकार की कुव्यवस्था के प्रति मुखरित होता है। जबकि ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल आज भी शृंगार, रति, काम और अभिसार के साथ-साथ व्यवस्था-विरोध के घालमेल का सार है। यह घालमेल निश्चित रूप से अपरिपक्वता, अज्ञानता को द्योतक है। तेवरी एक स्पष्ट सुविचारित यात्रा है जबकि हिन्दी ग़ज़ल या कथित ग़ज़ल एक अंधी दौड़ है।
‘वक्त के तेवर’ तेवरी-संकलन की तेवरियां पढ़कर यह बात अन्ततः या अन्त तक स्पष्ट होती है कि तेवरी ग़ज़ल की तरह किया गया ऐसा कोई कुकर्म नहीं जो प्रेमिका को बाहों में भरकर आलिंगनबद्ध होते हुए कुव्यवस्था को गाली देने का बोध कराये। तेवरी प्रेमिका को बांहों में भरने के जोश और कुव्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आक्रोश में अन्तर करना भलीभांति जानती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001