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24 Oct 2016 · 4 min read

‘ विरोधरस ‘—6. || विरोधरस के उद्दीपन विभाव || +रमेशराज

आलंबन विभाव की चेष्टाएं, स्वभावगत हरकतें, उसकी शरीरिक संरचना, कार्य करने के तरीके आदि के साथ-साथ वहां का आसपास का वातावरण आदि ‘उद्दीपन विभाव’ के अंतर्गत आते हैं। इस संदर्भ में यदि तेवरी में विरोध-रस के उद्दीपन विभावों को विश्लेषित करें तो इसके अंतर्गत खलनायकों के वे सारे तरीके आ जाते हैं, जिनके माध्यम से वे समाज का उत्कोचन, दोहन, उत्पीड़न व शोषण करते हैं।
दुष्ट लोगों का स्वभाव कहीं बिच्छू की तरह डंक मारता महसूस होता है तो कहीं सांप की तरह फुंकारता तो कहीं किसी का जोंक के समान खून चूसता तो कहीं अपने ही कुत्ते के समान काटता हुआ-
हमीं ने आपको पाला पसीने की कमायी से,
हमारे आप कुत्ते थे, हमीं को काट खाया है।
–डॉ. देवराज,‘कबीर जिंदा है’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.-25

कुर्सियों पै पल रहे हैं नाग प्यारे,
वक्त की आवाज सुन तू जाग प्यारे।
–डॉ. एन.सिंह, ‘कबीर जिंदा है’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.-40

वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते हैं ये,
अटकी पै मगर तलवा तलक चाटते हैं ये।
–गिरिमोहन गुरु,‘ कबीर जिंदा है’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.-24
दुष्टजनों की काली करतूतों के कारण आदमी बेचैन हो उठता है। उसकी रातों की नींद के मधुर सपने चकनाचूर हो जाते हैं। दुष्ट लोग सज्जन की इस पीड़ा से अनभिज्ञ खर्राटे मारकर बेफिक्र सोते हैं-
नींदों में था उस मजूर के एक सपना,
लालाजी के खर्राटों ने लूट लिया।
–अरुण लहरी,‘कबीर जिंदा है’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.-45
विरोध-रस के आश्रय को नेता के खादी के वस्त्र भी आदमी की हत्या करने वाले खूनी लिबास नजर आते हैं-
खादी आदमखोर है लोगो
हर टोपी अब चोर है लोगो।
-अरुण लहरी, ‘अभी जुबां कटी नहीं’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.-12
कायिक व वाचिक अनुभावों के बीच जनसेवा और देशभक्ति का ढोंग रचने वाले नेता की करतूतें देखिए-
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवकजी,
कितने गदगद हो जाते हैं जनसेवकजी।
भारत में जन-जन को हिंदी अपनानी है,
अंग्रेजी में समझाते हैं जनसेवक जी।
-रमेशराज, ‘इतिहास घायल है’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ.44
एक तेवरीकार को सामाजिक परंपराओं, दायित्व, परोपकार का वह सारा का सारा ढांचा बिखरता नजर आता है जिसमें हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्य उजाले की तरह ओजस् थे। उसे तो सनातन पात्रों का व्यवहार आज व्यभिचार और बलात्कार का एक घिनौना बिंब प्रस्तुत करता हुआ सभ्यता के बदबूदार हिस्से की तरह उद्दीप्त करता है-
राम को अब रावन लिखने दो,
ऐसा संबोधन लिखने दो।
आज द्रौपदी का कान्हा ही,
नोच रहा है तन लिखने दो।
बुरी निगाहें डाल रहा अब ,
सीता पर लक्ष्मन लिखने दो।
-दर्शन बेजार, ‘एक प्रहारःलगातार’ [तेवरी-संग्रह ] पृ.-62
सम्प्रदाय और जातिवाद के समीकरण पर टिकी इस घिनौनी व्यवस्था के नायक भले ही ‘वंदे मातरम्’ और ‘जन-गण-मन’ के गायक हैं, लेकिन जनता इनकी करतूतों को पहचान रही है और यह मान रही है-
कत्ल कर मुंसिफ कहे जाते हैं कातिल आजकल,
शैतान में बेहद अकल है यार अपने मुल्क में।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.21द्ध

चमन उजाड़ रहे हैं माली,
सिसक रहा गुलजार यहां है
–सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 35द्ध
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रिंट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया को शोषक, त्रासद, उत्पीड़क वातावरण में अपने चरण उस उजाले की ओर बढ़ाने चाहिए, जिसमें हर गलत चीज साफ-साफ दिखाई दे। त्रासदियों से उबरने का कोई हल दिखायी दे। लेकिन सत्य के उद्घोषक ये सरस्वती पुत्र आज विरोध-रस का आलंबन बन चुके हैं और एक अराष्ट्रीय व अराजक भूमिका के साथ उद्दीप्त कर रहे हैं-
पुरस्कार हित बिकी कलम, अब क्या होगा?
भाटों की है जेब गरम, अब क्या होगा?
प्रेमचंद, वंकिम, कबीर के बेटों ने,
बेच दिया ईमान-ध्रम, अब क्या होगा?
–दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.-39
समूचे विश्व का मंगल चाहने वाला साहित्यकार आज दरबार-संस्कृति का पोषक व उद्घोषक बनता जा रहा है। उसे ‘अभिनंदन और वंदन’ का संक्रामक रोग लग गया है। वह हमारी उद्दीपन क्रिया में कुछ इस तरह जग गया है-
तथाकथित लोलुप साहित्य-सेवियों को,
अभिनंदन का पला भरम, अब क्या होगा?
यूं कैसे साहित्य बने दर्पण युग का,
बने मात्र दरबारी हम, अब क्या होगा?
–दर्शन बेजार, एक प्रहारःलगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.3
प्रकृति का अबाध दोहन हमसे हरे-भरे दृश्य ही नहीं छीन रहा है, हमारे बीच से उन खुशियों को बीन रहा है, जिसकी स्वस्थ वायु में हम चैन की सांस ले सकें। कारखाने भयंकर प्रदूषण छोड़कर हमें ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की त्रासदी की ओर धकेल रहे हैं। भौतिक सुख की अंधी होड़ में जुटा परिवहन हमें धुंआ पीने को मजबूर कर रहा है। हमारी खुशी से हमें दूर कर रहा है।
सड़कों के नाम पर पूरे परिवेश में सीमेंट, कंकरीट और तारकोल का जंगल उग आया है। फलतः जलस्तर नीचे जा रहा है। प्रकृति के तरह-तरह के प्रकोपों से सामना करना पड़ रहा है। पुष्पमंडित, जलप्रपातों से भरी, मीठेजल वाली प्रकृति आज हमें इस प्रकार उद्दीपत कर रही है-
है विषैला आजकल वातावरण,
पी गया कितना गरल वातावरण।
–गिरीश गौरव, इतिहास घायल है, पृ.-36
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
288 Views

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