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31 Aug 2019 · 1 min read

विरह

खुशबू लेकर प्रेम की, गया भ्रमर परदेश।
मैं मुरझाई सी पड़ी, बचा नहीं कुछ शेष।।

बिछड़ी हूँ मैं इस तरह, ज्यों डालीं से पात।
निर्झर नयनों से झरे, दर्द भरी बरसात।।

सावन भादों मास सा, झरे नयन से नीर।
झुलस रहे हैं विरह से, व्याकुल तप्त शरीर।।

चंपा,बेला, मोगरा, जुही, चमेली फूल।
तुम बिन लगता है पिया, जीवन चुभते शूल।।

अंतस उठती हूक-सी, हुई दग्ध बीमार।
बिन तेरे अब साजना, करें कौन उपचार।।

मूक अँधेरी रात में, छिड़े विरह की तान।
तड़प रही है चाँदनी, टूटे सब अरमान।।

विरह वियोगी वेदना,करते करुण पुकार।
मूक अँधेरी रात में,गूँज उठे चीत्कार।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली

Language: Hindi
258 Views
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