विरह वियोगन
दर्द दिया दिलवर अगर ,
दवा बताए आप ।
तेरे ही बस नाम का ,
लेती हूँ आलाप ।
विरह वियोगन मैं बनी ,
आँख झरे दिन रात ।
दर्शन मुझको दो अभी ,
मिले शब्द का भाप ।
हिय अंतर प्रिय तुम बसे ,
औरे सब जंजाल ।
नयन रोकती अश्रु अब ,
आओ तुम चुपचाप ।
मधुर भाव तन-मन छले ,
बरबस बहती प्रीति ।
विरह अगन मैं हूँ जली ,
बाँहों अब लो ढाँप ।
चाह रही मन में बहुत ,
पाऊँ बस एकांत ।
सुख समीर की धार में ,
होए प्रेमालाप ।।
डा . सुनीता सिंह “सुधा”शोहरत
स्वरचित सृजन
वाराणसी
23/7/2020