विरह वसंत
पिया नहीं आये सखी,क्यों आ गया बसंत।
दहके टेसू-सा बदन,तृष्णा भरे अनंत।। १
कोयलिया कुहके सखी, सुध बुध लेती छीन।
बौराई हूँ आम सी,तन हो गया मलीन।।२
पिया अनाड़ी नासमझ, कौन इन्हें समझाय।
ऋतु वसंत का आ गया,घर वो भी आ जाय।।३
हवा बसंती जब चले, महके पुष्प पराग।
मस्ती मादकता बहुत, बढ़ी विरह की आग।।४
चले बसंती जब पवन , नस-नस उठती आग।
लगी लड़खड़ाने घटा, मन मचले अनुराग।। ५
प्रेमी प्रियतम नाम से, लिखा प्रणय का पत्र।
प्रिय वसंत का आगमन, काम उठाया शस्त्र।।६
आओ प्रियतम हम रचे, सपनों का संसार।
प्रेम सुधा अंतस भरे, झूमे मस्त बहार।। ७
मन भीतर पतझड़ रहा, बाहर रहा वसंत।
एक आग जलती रही, प्रिय बिन ऋतु का अंत।। ८
आज खिला अंतस चमन, मधुर मिलन की आस।
ताप विरह झेला बहुत, अब आया मधुमास।। ९
-लक्ष्मी सिंह