विपत्तियों में स्वभाव संस्कार सहायक
स्वभाव और संस्कारों के विविध पहलुओं की चर्चा छिड़ जाय तो हर कोई अपना ज्ञान बघारने लगता है लेकिन अपने या अपने परिवार को वह शायद ही उसमें शामिल करता हो, या उदाहरण के रूप में पेश करता हो।जबकि लगभग हर कोई जानता है कि कोई भी बच्चा जब जन्म लेता है तो वह कच्ची गीली मिट्टी के समान ही होता है। जैसे कुम्हार कच्ची गीली मिट्टी को जैसे चाहे आकार दे सकता है, ठीक वैसे ही बच्चों के माता-पिता या परिवार के लोग अपने बच्चे को जिस भी रूप में ढालना चाहें, बड़ी आसानी से ढाल सकते हैं, कुछ डाल भी लेते हैं। यूँ तो घर को किसी भी व्यक्ति की प्रथम पाठशाला और माँं को प्रथम शिक्षिका कहा जाता है। क्योंकि संस्कारों का पाठ सीखने का शुभारंभ घर से ही होता है और शुरुआत माँ से। उसके बाद ही बच्चा घर से बाहर निकलकर धीरे धीरे बाहर की दुनिया में कदम रखता है और काफी कुछ सीखता है। बाहर की दुनिया में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष गुरुओं से कुछ जाने कुछ अंजाने संस्कार सीखता है। जिसका असर उसके स्वभाव में शामिल और धीरे धीरे विकसित होता जाता है, और वही उसका स्वभाव बन जाता है। उदाहरण स्वरूप हम कह सकते हैं कि जहाँ माता-पिता की शिक्षा ने अपने बच्चे को श्रवण कुमार बना दिया, तो वहीं माता पिता की लापरवाही या अकर्मण्यता ने किसी बालक को बालपन में चोरी करने की गलती पर न रोकने टोकने पर बड़ा चोर बनने पर मजबूर कर दिया। अधिसंख्य खूंखार अपराधियों का इतिहास देखा जाए तो संभवतः यही निष्कर्ष निकल कर आयेगा कि बचपन में उन्हें संस्कार ऐसे नहीं मिले, सही ग़लत का मतलब नहीं समझाया गया, सही बात पर हौसलापंअफजाई नहीं की गई, गलत पर टोका टाकी या समयानुकूल सजा नहीं दी गई। वर्तमान परिवेश में ऐसे अनगिनत छोटे बड़े उदाहरण हम सभी के सामने खुलकर सामने हैं तो हमारे आसपास भी उदाहरणों की कमी नहीं है। बस देखने का नजरिया होना चाहिए। यदि हम व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करें तो बड़ी आसानी से सब कुछ महसूस कर सकते हैं और समझ भी सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक वैसे ही हमारे जीवन में भी इसी तरह दो पहलू होते हैं। अच्छा या खराब, सही या ग़लत, उचित या अनुचित आदि। ठीक वैसे ही संस्कार और स्वभाव भी एक सिक्के के दो पहलू समान ही हैं। बच्चों को ही नहीं हर किसी को जैसे जैसे समय, परिस्थिति के अनुसार संस्कार मिलते जाते हैं, वही हमारे या बच्चों का स्वभाव बनकर उनके रोजमर्रा का हिस्सा बन जाते हैं। यदि हम बात करें कि विपत्तियों में स्वभाव-संस्कारों की सहायक भूमिका का है, तो यह निश्चित रूप से यह सत्य भी है कि हमारे स्वभाव और संस्कारों की पूंजी विपत्तियों में हमें धैर्य, साहस प्रदान कर समायोजन में मदद करते हैं, हमें उसी के अनुरूप ढालने और व्यवहार करने में मदद करते हैं, जिससे हमें आसानी से विकल्प नजर आने लगते हैं/उपलब्ध हो जाने की संभावना को बढ़ा देते हैं, अप्रत्याशित/अव्यवहारिक माहौल और लोगों में भी अपनेपन का माहौल और सहयोग आसानी से प्राप्त हो जाता है। कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष भी, ऐसे में हमें भी घुलना मिलना आसान हो जाता है और हम बड़ी आसानी से विपत्तियों से निकल कर बाहर आ जाते हैं।
….. और यह सब तभी संभव है जब हमारे स्वभाव, संस्कार ऐसे हों, जिसमें मानवीय संवेदना, सम्मान देने का भाव, सरलता, सहजता और निस्वार्थ भाव हो। तब निश्चित रूप से हमारे संस्कार/स्वभाव हमारे लिए विपत्तियों में अद्भुत सहायक की भूमिका में हमारे सहगामी बन ही जाएंगे।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश