विडम्बना
कैसी विडम्बना है कि
जब हम
पीड़ा से
छटपटाते हैं
बिलबिलाते हैं तो
रोकर,
तड़पकर,
दया के लिए
अज्ञात के आगे
फैलाते हैं झोली
तब हम बन जाते हैं
एकदम
एक आम आदमी
बिल्कुल साधारण मानव
भीड़ का एक हिस्सा
तब कहीं भीतर तक
आहत होती है
हमारी
महत्वाकांक्षा
दूसरों से
अलग दिखने की
लालसा
भीड़ से अलग
आम आदमी से इतर
विशिष्ट श्रेणी में
खड़े होते ही
हम
देखने लगते हैं स्वप्न
अम्बेडकर,
सुकरात
और
सिकंदर बनने के
किन्तु सच तो यह है कि
बाहर के
सम्पूर्ण आडम्बर के बाद भी
भीतर से
रहते हैं
एक आम आदमी ही
विशिष्ट की खाल ओढ़
एक आम आदमी की पीड़ा
उसके दुःख
उसके सुख
उसके मनोवेग झेलते
न हँस सकते हैं
न रो सकते हैं
हम मानव संतानें
समय की आँधी में
गाँधी बने
अपने किसी
परम आत्मीय के
अलगाव पर भी
आँखों से बहते
रक्त के गीलेपन को
छुपाने के लिए
आँखों पर
चढ़ा लेते हैं काला चश्मा
हम मानव संतानें
अज्ञात के
नाटक के महान पात्र
धुर अन्दर से
नहीं बन पाते
अति विशिष्ट
भीड़ से अलग
न आम आदमी
न विशिष्ट
मात्र त्रिशंकू
हम से छिन जाता है
हमारा अपनापन
और
विशिष्ट की खाल ओढ़े
बन जाते हैं
अति क्लिष्ट