विगत स्मृतियां
बचपन की वो स्मृतियां सुहानी
भला कैसे कोई भूल सकता है
अनकही वे बातें पुरानी
भला कैसे कोई भूल सकता है
गुजरता है वो जब भी उन गलियों से
यादें हरदम घिर आती हैं
वो खिड़की पे बैठा मासूम सा चेहरा
भला कैसे कोई भूल सकता है
साथ महज दो वर्षों का था
अटूट प्रेम की थी शुरुआत
मिलते थे रोजाना दोनों
कोपलें प्रेम की खिलती थीं
फिर काल ने अपना चक्र चलाया
विदा होने का वक्त भी आया
जीवन को एक नई दिशा देने को
मन ही मन एक दूजे को समझाया
वक्त का पहिया कब रुकना था
चलता ही रहा साल दर साल
और इधर ये दोनों भी रम गए
पूरा करने अपना सपनो का जाल
अपना भविष्य बनाने खातिर
दोनों रहे बेखबर एक दूजे से
हंसते खेलते हुए उलझ गए दोनों
इस दुनिया के भ्रमित झमेले से
शनै: शनै: समय बीत रहा था
और दशक तीन व्यतीत हुए
वे दोनों भी अपनी-अपनी घर गृहस्थी
और घर संसार में लीन हुए
समय के चक्कर ने जाने कब
यादों को नेपथ्य में जैसे ढकेल दिया
उन दोनों को एक दूजे से कर जुदा
भिन्न शहर में लाकर छोड़ दिया
एक दिन हवाओं का रुख पुनः अनुकूल हुआ
अंकुर प्रेम का दोनो में फिर से स्फुटित हुआ
वर्षों से अब तक बिछड़ा था जिनसे
मित्रों के बीच फिर उसका प्रवेश हुआ
पाते ही साथ मित्रों का जिंदगी जैसे बदल गई
तीन दशकों की यादें फिर से एकदम ताजा हो गईं
वक्त फिर से पंख लगा कर उड़ने लगा
पाकर साथ एक दूजे का
जीवन भी जैसे खिलने लगा…
जीवन भी जैसे खिलने लगा…