*विकृत मानसिकता*
छोड़ दिया है लोगों ने, अब दया धर्म का पाठ
करते रहते नित प्रति दिन, मिथ्या व्यर्थ प्रलाप
भूल गये वो समय की महिमा, वृथ ही इसे गंवाते हैं
स्वारथ में अंधे होकर वो, सबको ही कष्ट पहुंचाते हैं
आज का मानव रावण बनकर, इस समाजका हिस्सा है
इतने राम कहां से आए, ऐ हर घर का किस्सा है
भूल गया वो सदाचार को, लिपटा रहता व्यसनों में
सुवर्ण के चक्कर में पड़के, पतित हो रहा अपनों में
क्यों करता तू मेरी तेरी, कुछ भी साथ न जायेगा
सत्कर्मों की पूंजी करले, अन्त साथ में पायेगा
लेखक:- आदि पुष्पेन्द्र